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मारने के लिए जिस आत्मबल की जरूरत होती है या यों कहें कि धक्के देने के लिए जिस मजबूज हाथ की जरूरत होती है वह 'गुरू हथौडा' के रूप में उसके पास है।
'कुकुरमुत्ता' निराला का एक अभिनव प्रयोग है इसमें एक ओर भाषागत् अभिजात्य है तो दूसरी ओर उसका विरोधी स्वर भी है। कहीं कहीं दोनों का मिला जुला रूप भी है। 'अभिप्रेत' अर्थवत्ता के लिए वे किसी भी प्रकार की भाषा का प्रयोग कर सकते थे :
"अबे! सुन बे! गुलाब; भूल मत पायी खूशबू रंगोआब। | खून चूस खाद का तूने अशिष्ठ; डाल पर इतरा रहा है कैपटिलिस। कितनो को तूने बनाया है गुलाम मालिक कर रखा सहाया जाड़ा घाम हाथ जिसके तू लगा पैर सर पर रख कर वह पीछे को भगा जानिब औरत की मैदाने जंग छोड़ तबेले को टटट् जैसे तंग तोड़
रोज पड़ता रहा पानी;
तू हरामी खानदानी"। इन पंक्तियों में जो तेवर दिखायी पड़ता है, उसके लिए खाद, अशिष्ठ, जानिब और तबेले का टटू आदि शब्द और मुहावरे अर्थ की भंगिमा के लिए जरूरी थे, तू हरामी खानदानी उसके परम्परागत् हरामीपन को पीढ़ी-दर-पीढ़ी
1. कुकुरमुत्ता : निराला रचनावली भाग (1) : पृष्ठ - 50
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