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यहाँ कन्नौजियों की संकीर्ण विवाह पद्धति पर गहरा व्यंग्य करके उनकी कुरीति दहेज की दूषित प्रथा, कुल के छोटे बड़े होने के छिद्रान्वेषण आदि की खूब खिल्ली उड़ायी गयी है, व्यंग के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग किया गया है। 'खाकर पत्तल में करें छेद जैसे मुहावरों के द्वारा व्यंग्य की धार को तीव्र किया गया है। विषम् बेलि में विष ही फल; जैसे व्यंगात्मक मुहावरों का प्रयोग दृष्टव्य
हैं।
कवि निराला की 'तोड़ती पत्थर' कलात्मक सौन्दर्य एवं कथ्य की दृष्टि से अप्रतिम रचना है, इस कविता का दूसरा बन्ध है :
"कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार श्याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन, प्रिय-कर्म-रत् मन, गुरू हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार
सामने तरू-मलिका, अट्टालिका प्राकार ||" इस कविता का एक-एक शब्द और वाक्य इस्पात की तरह ढ़ला हुआ है। इलाहाबाद के पथ पर पूरी रचना सगुम्फित है। इसके अभाव में 'तरू-मलिका अट्टालिका' की व्यंजना अधूरी रह जाएगी, कोई ने छायादार कहने से छाया-हीनता का बोध स्वतः हो जाता है। विरूद्धों का यह सामंजस्य कवि की अर्थवत्ता को सघन बना देता है। 'करती बार -बार प्रहार', की चोट सिर्फ पत्थर पर ही नहीं पड़ती अपितु तरू-मलिका अट्टालिका पर भी पड़ती है। जो शोषण की सम्पूर्ण व्यवस्था पर धक्का तो है ही, साथ ही उस धक्का को
1. तोड़ती पत्थर : निराला रचनावली भाग (1) : पृष्ठ - 342
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