SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवसन्न भी हूँ प्रसन्न मैं प्राप्तवर; प्रात तव द्वार पर। यहाँ साधक की साधनावस्था का काव्यमय वर्णन है भगवान के ध्यान में मग्न साधक प्रत्येक बाधा को अपना शिक्षक मानता है और उसको अपना हितैषी समझता है। वैसे ही जैसे विष का प्याला मीरा के लिए अमृत का प्याला बन गया था और सॉप के स्थान पर शालग्राम के दर्शन हुए थे। इसी तरह ईशा और मंसूर के लिए शूली फूलों की सेज बन गयी थी। उसी प्रकार यहॉ भक्त के रास्ते में सारे पत्थर फूल से लगने लगे उनके द्वारा पैरों में ठोकर शीतल सुख का अहसास कराने लगी यहाँ पत्थर का फूल बनना विरोधाभास का प्रतीक है। महाकवि यहाँ ऐसी नागरी-नायिका के सौन्दर्य का चित्रण करते हैं नायिका जो रात की केलि-कीड़ा के उपरान्त नींद की खुमारी में क्लान्त लेटी हुई है: "लाज से सुहाग का मान से प्रगल्भ प्रिय प्रणय निवेदन का जागृति में सुप्ति थी जागरण क्लान्ति थी!" यहाँ कवि ने रीतिकालीन शैली से नायिका का वर्णन किया है। प्रलय कालीन वातावरण है और नायिका के रंग-बिरंगे स्वप्न और अपनी प्रिया के निश्चल ओठों में शराब की मादकता का एहसास तथा उस मादकता का दिखाई न पड़ना इस प्रकार नायिका की अनेकानेक विरोधाभासी चेष्टाएँ, ये सब सोचकर ओठों में आए कम्पन विरोधाभास अलंकार का द्वैतक है। 1. 'प्रात तव द्वार पर' : अपरा : पृष्ठ - 31 2. "जागृति में सुप्ति थी' : निराला रचनावली भाग (1) : पृष्ठ - 144 128
SR No.010401
Book TitleLonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPraveshkumar Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy