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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न आत्माको भी जानता है और उसका मोह विलीन हो जाता है। आत्मासे भिन्न पदार्थों में जीवका जो मूढभाव (विपरीत दृष्टि) है, वही मोह कहलाता है। मोहयुक्त जीव अन्य पदार्थोंमें राग या द्वेष करके क्षुब्ध होता है और कर्मबन्धन करता है । इसके विपरीत, जो जीव मोहरहित होकर, आत्माके वास्तविक तत्त्वको समझकर, राग-द्वेषका त्याग करता है, उसे शुद्ध आत्माको प्राप्ति होती है। समस्त अर्हन्त इसी मागसे कर्मोंका क्षय करके, तथा अन्य जीवोंको इसी मार्ग का उपदेश देकर मुक्त हुए हैं। उन महापुरुषोंको नमस्कार हो । (प्र. १, ७८-८२) ___ मैं अशुभ उपयोगसे दूर रहकर तथा शुभोपयोगवान् भी न बनकर, अन्य द्रव्योंमें मध्यस्थ रहता हुआ, ज्ञानात्मक आत्माका ध्यान करता हूँ। मैं देह नहीं हूँ, मन नहीं हूँ, वाणी नहीं हूँ तथा देह, मन और वाणीका कारणभूत पुद्गलद्रव्य नहीं हूँ। मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ और करनेवालोंका अनुमन्ता भी नहीं हूँ। देह, मन और वाणी जड़-भौतिक द्रव्यात्मक हैं और भौतिक द्रव्य भी अन्ततः परमाणुओंका पिण्ड है। मैं जड़-भौतिक द्रव्य नहीं हूँ; इतना ही नहीं, पर मैंने उनके परमाणुओंको पिण्डरूप भी नहीं किया है। अतः मैं देह नहीं हूँ और देहका कर्ता भी नहीं हूँ। (प्र० २, ६३-७०)
पृथ्वी आदि जितने भी स्थावर अथवा स ( जंगम) काय है, . वह सब शुद्ध चैतन्य स्वभाववान् जीवसे भिन्न हैं; और जीव उन सवसे भिन्न है। जो जीव अपने मूल स्वभावको न जानकर, जीव और जड़ द्रव्यको अभिन्न मानता है, वह मोहपूर्वक 'मैं शरीरादिक हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं, इस प्रकारके अध्यवसाय करता है। इस प्रकारके अध्यवसायसे जीवको मोहका बन्ध होता है और मोह-बन्धसे वह प्राणोंसे भी बद्ध होता है। इन कर्मोंका फल भोगता हुआ वह अन्य नवीन कर्मोसे भी बद्ध होता है। मोह और द्वेषके कारण जीव जब अपने या अन्यके प्राणोंको पीड़ा पहुँचाता है, तब ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंसे बद्ध होता है। कर्ममलोन