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द्रव्यविचार
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आर्तध्यान और रौद्रध्यान, दूषित भावोंमें ज्ञानका प्रयोग करना और मोह - यह सब पापकर्मके द्वार हैं । ( पं० १३९-४० )
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वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो शुभ और अशुभ भावोंके परिणाममें अन्तर नहीं है । देवों को भी स्वभावसिद्ध सुख नहीं है, यही कारण है कि वह देहवेदनासे पीड़ित होकर रम्य विषयोंमें रमण करते हैं । नर, नारक, पशु और देव इन चारों गतियों में देह-जन्य दुःखका सद्भाव है ही । सुखी-सरोखे दिखाई देनेवाले देवेन्द्र और चक्रवर्ती, शुभ भावोंके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले भोगोंमें आसक्त होकर देहादिकी वृद्धि करते हैं । शुभ भावोंके कारण प्राप्त हुए विविध पुण्योंसे देवयोनि तकके जीवोंको विषयतृष्णा उत्पन्न होती है । तत्पश्चात् जागृत हुई तृष्णासे दुःखी और सन्तप्त होकर वह मरणपर्यन्त विषयसुखोंकी इच्छा करते हैं और उन्हें भोगते हैं । किन्तु इन्द्रियोंसे प्राप्त होनेवाला सुख दुःखरूप ही है, क्योंकि वह पराधीन है, बाधायुक्त है, निरन्तर रहता नहीं है, बन्धका कारण है तथा विषम ( हानिवृद्धियुक्त अथवा अतृप्तिजनक ) है । इस दृष्टिसे पाप और पुण्यके फलमें भेद नहीं है । ऐसा न मानकर जो पुण्यसे मिलनेवाले सुखोंको प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हैं, वह मूढ़ मनुष्य इस घोर और अपार संसारमें भटकते फिरते हैं । ( प्र० १, ६९-७७ )
जीवके शुद्धभाव - जो मनुष्य परपदार्थोंमें राग और द्वेषसे रहित होकर अपने शुद्ध भावोंमें स्थित होता है, वही देहजन्य दुःखोंको दूर कर सकता है । पापकर्मोंको छोड़कर कोई शुभ - पुण्यचरित्र में भले ही उद्यत हो, परन्तु जबतक वह मोह आदिका त्याग नहीं करता तबतक शुद्ध आत्माकी उपलब्धि नहीं हो सकती । अर्हन्त, आत्माका शुद्ध स्वरूप हैं । अतएव जो मनुष्य अर्हन्तको द्रव्य, गुण और पर्यायसे जानता है, वही
१. अप्रिय वस्तुके वियोग और प्रिय वस्तुके संयोगके लिए होनेवाली सतत चिन्ता श्रार्तध्यान है । हिंसा, असत्य, चोरी और विषय - संरक्षण के लिए होनेवाली सतत चिन्ता रौद्रध्यान है ।