________________
४८
कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न वस्तु ऐसी नहीं है जो अपने स्वभावमें स्थिर हो। चारों गतियोंमें परिभ्रमण करनेवाले जीवद्रव्यको विविध अवस्थाओंमें परिणमन करनेकी जो क्रिया है, उसीको संसार कहते हैं । (प्र. २, २४-८)
कर्मबन्धन - सम्पूर्ण लोक, सर्वत्र जड़-भौतिक द्रव्यके छोटे-बड़े स्कन्धोंसे खचाखच भरा हुआ है। कोई स्कन्ध सूक्ष्म है, कोई स्थूल है। आत्मा किसीको कर्म रूपमें ग्रहण कर सकता है, किसीको नहीं ग्रहण कर सकता। इन नाना स्कन्धोंमें-से, जो कर्म रूपमें परिणत होनेको योग्यता रखते हैं, वह संसारी जीवके ( राग-द्वेष आदि अशुद्ध) परिणामोंका निमित्त पाकर कर्मरूपमें परिणत हो जाते हैं और जीवके साथ बंध जाते हैं। कर्म-बन्धनके कारण जीवको विविध गतियां प्राप्त होती हैं । गतियाँ प्राप्त होनेपर देहको भी प्राप्ति होती है। इसी प्रकार देहसे इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे विषयग्रहण और विषयग्रहणसे राग-द्वेषकी उत्पत्ति होती है। संसाररूप भूलभुलयामें, इस तरह मलीन जीवमें अशुद्ध भावोंका प्रादुर्भाव होता है । ( पं० १२८-९)
जीवको प्राप्त होनेवाले औदारिक, वैक्रियिक, तेजस, आहारक और कार्मण-शरीर जड़ भौतिक द्रव्यात्मक हैं। जीव रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, अव्यक्त, शब्दरहित, अतोन्द्रिय ( अलिंगग्रहण) और निराकार
१. औदारिक शरीर-बाहर दिखाई देनेवाला सप्तधातुमय शरीर भौदारिक
शरीर है । वैक्रियिक शरीर-छोटा, बड़ा, एक, अनेक भादि विविध रूप धारण कर सकनेवाला वैक्रियिक शरीर कहलाता है। यह शरीर देवों और नारकोंको जन्मसिद्ध होता है और अन्य जीवोंको तपस्या मादि साधनासे प्राप्त होता है। तैजसशरीर-खाये हुए आहारको पचाने और शरीरकी दीप्तिका कारणभूत शरीर । आहारक शरीर-चौदह पूर्व-शास्त्रोंके ज्ञाता मुनि-दारा, शंकासमाधानके निमित्त अन्य क्षेत्रमें विचरनेवाले तीर्थकरके पास भेजनेके अभिप्रायसे रचा हुआ शरीर। कामणशरीर-जीव-द्वारा बाँधे हुए कर्मों का समूह ।