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द्रव्यविचार
कहलाते हैं और बलवान् हैं । देवोंकी चार जातियाँ हैं । मनुष्योंके ( कर्मभूमिज और अकर्मभूमिजके भेदसे ) दो प्रकार हैं । तियंचोंमें अनेक जातियाँ हैं । नारकी ( नरकभूमियोंके आधारपर ), सात प्रकारके हैं । पहले बांधे हु गति नामकर्म और आयुकर्मका क्षय होनेपर यह सब जीव अपनीअपनी लेश्या के अनुसार दूसरी गति और आयु प्राप्त करते हैं । ( पं० ११०-९ )
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जीवकी परिणमनशीलता - संसारी जीवका कोई भी पर्याय वहींका वहीं कायम नहीं रहता । इसका कारण यह है कि संसारी जीव अपने ( अज्ञानरूप ) स्वभावके कारण विविध प्रकारकी क्रियाएँ किया करता है । इन क्रियाओंके फलस्वरूप उसे देव, मनुष्य आदि अनेक योनियाँ मिलती हैं । अलबत्ता, जब वह अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थिति-रूप 'परम धर्म - का आचरण करता है, तब उसे देव, असुर आदि पर्यायरूप फलसे छुटकारा मिलता है । जीवको शरीर आदि विविध फल देनेवाला 'नामकर्म' नामक कर्म है। वह आत्मा शुद्ध निष्क्रिय स्वभावको दबाकर, आत्माको नर, पशु, नारक या देव गति प्राप्त कराता है । वास्तवमें कोई भी जीव इस क्षणिक संसारमें नष्ट नहीं होता, न उत्पन्न ही होता है । द्रव्यार्थिक नयसे देखा जाय तो एक पर्याय रूपसे नष्ट होकर दूसरे पर्याय रूपसे उत्पन्न होनेवाला द्रव्य एक ही है । पर्याय दृष्टिसे पर्याय ही अलग-अलग हैं। संसार में कोई
१. जिस जगह असि, मषि, कृषि, वाणिज्य आदि कर्मों द्वारा जीवन निर्वाह किया जाता है और जहाँ तीर्थंकर आदि धर्मोपदेशक उत्पन्न हो सकते हैं, वह क्षेत्र कर्मभूमि है । जहाँ नैसर्गिक वृक्षोंसे ही समस्त अभिलाषाओंकी पूर्ति की जाती है - कृषि आदि कर्म नहीं होते, वह क्षेत्र भोगभूमि या कर्मभूमि कहलाता है ।
२. जीवकी गति, शरीर, आकृति, वर्ण आदि निश्चित करनेवाला कर्म नामकर्म कहलाता है ।
३. कषायसे अनुरंजित मन, वचन एवं कायकी प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है ।