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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न
काल द्रव्य अणुरूप है इसलिए उसके अनेक प्रदेश नहीं होते । ( कालके अणु पुद्गल आदिके अणुओंकी तरह आपसमें एकमेक नहीं हैं, किन्तु रत्नों की राशिके समान एक- दूसरेसे जुदा-जुदा हैं । ) अतएव काल एक हो प्रदेशवाला है । जिसमें प्रदेश न हो या जो एक प्रदेशरूप भी न हो उसे शून्य, अस्तित्वरहित, अवस्तुभूत समझना चाहिए (प्र० २,४३,५, ४८, ५२ ) ।
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छह द्रव्योंमें से पुद्गल और जीवके उत्पाद, स्थिति और भंग रूप परिणमन उनके मिलने और बिछुड़नेसे होते हैं ( प्र० २,३७ ) दूसरे शब्दों में जीव और पुद्गलद्रव्य सक्रिय हैं, शेष' निष्क्रिय हैं। जीवको क्रियामें पुद्गल निमित्त है। पुद्गलकी क्रियामें काल निमित्त है । ( पं० ९८ )
छह द्रव्योंका विशेष विचार
१. आकाश- समस्त जीवोंको, धर्मद्रव्यको, अधर्मद्रव्यको, कालको और पुद्गलोंको लोकमें पूर्ण अवकाश देनेवाला द्रव्य आकाश कहलाता है | आकाशके जिस भागमें जीव आदि सब द्रव्य समाये हुए हैं, उसे लोक कहते हैं । लोकके बाहर अनन्त आकाश है । आकाशको अवकाश देने के अतिरिक्त गति और स्थितिका भी कारण माना जाय तो अनेक जैन सिद्धान्तोंसे विरोध आता है । यथा मुक्तजीव, मुक्त होते हो उर्ध्वगति करके लोकके शिखर तक गमन करता है और वहाँ पहुँचकर रुक जाता
१. शेष द्रव्य भावशील है। क्रिया अर्थात् हलन चलन, ""परिस्पन्द, भाव अर्थात् परिणमन । परिणमन रूप भावकी दृष्टिसे तो सभी द्रव्य उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त हैं किन्तु जीव और पुद्गल क्रियावान् भी हैं तथा भाववान् भी हैं।
२. जबतक कर्मरूपी पुद्गलके साथ जीवका सम्बन्ध है तभीतक वह मूर्तजैसा बनकर सारी क्रियाएँ करता है । जब कर्मका सम्बन्ध छूट जाता है तब वह निष्क्रिय हो जाता है ।