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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न सकता है। इस प्रकार एक ही पुस्तकमें सिलसिलेवार क्रममें प्राथमिक सैद्धान्तिक भाग और अन्तिम परिपूर्ण दशा तथा उसकी साधनाका वर्णन एक साथ रखनेमें जरा अनौचित्य होता है। 'समयसार' ग्रन्थ विशिष्ट अधिकारीके लिए ही है, ऐसी तो परम्परा भी है। इस ग्रन्थके मन्तव्यों
और वक्तव्योंको ‘पंचास्तिकाय'के प्रारम्भिक सैद्धान्तिक भागके साथ रखना अनुचित प्रतीत होता है। परन्तु इसका एक ही समाधान है और वह यह कि परम्परा ही तीनों ग्रन्थोंको एक संग्रहरूप मानती है और उन तीनोंका सम्मिलित 'रत्नत्रय' नाम देती है। कुन्दकुन्दाचार्यका वेदान्त ___ इस पुस्तकके जो महत्त्वपूर्ण भाग हैं, उनमें ऐसा कुछ नहीं है जो श्वेताम्बर या स्थानकवासी अथवा ब्राह्मण या बौद्ध सम्प्रदाय वालेको अस्वीकार्य जान पड़े । उलटा यह अवश्य कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थ जैनदर्शन और वेदान्त तथा सांख्यदर्शनके बीचके लम्बे अन्तरको बहुत अंशोंमें कम कर देते हैं। हम यहाँ जीव और कर्म सम्बन्धी एक ही बात लें। जीव-कर्मका सम्बन्ध
जैनदर्शनमें साधारण तौरपर जीव कर्ता और भोक्ता माना गया है। जीव अनादि कालसे कर्म-रजसे युक्त है; और उस कर्मबन्धके कारण उसमें विविध विभाव-स्वभावसे विपरीत भाव उत्पन्न होते हैं। उन विभावोंके कारण फिर नवीन कर्मबन्धन होता है। कुन्दकुन्दाचार्यको इस अभिमतके साथ विरोध नहीं है; वे यह भी मानते हैं कि आत्माको कर्ता-भोक्ता माने बिना काम नहीं चलता। परन्तु वे एक कदम आगे बढ़ते हैं। वे स्पष्ट शब्दोंमें कहते हैं कि 'जो दृष्टि आत्माको अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त समझती है वह पारमार्थिक दृष्टि है। आत्मा न प्रमत्त ( संसारी ) है, न अप्रमत्त ( मुक्त ।) ( स० ६-७)