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कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न उमास्वातिका ही नाम है और वक्रग्रीवाचार्य नामक व्यक्ति जुदा ही है और उनमें तथा कुन्दकुन्दाचार्यमें कुछ भी सम्बन्ध नहीं माना जा सकता। अब एक मात्र 'एलाचार्य' नाम ही रह जाता है जिसके सम्बन्धमें निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि वह कुन्दकुन्दाचार्यका नाम था या नहीं ? जैन-परम्परा बतलाती है कि दक्षिणके प्रसिद्ध तामिल ग्रन्थ 'कुरल' के लेखक एलाचार्य नामक जैन साधु थे और इस कारण कुछ लोग कुन्दकुन्दाचार्यको ही कुरल ग्रन्थका लेखक मानते हैं। कुरल ग्रन्थ ईसाको पहली सदीमें रचा गया माना जाता है। अब अगर कुन्दकुन्दाचार्य इस अन्यके लेखक सिद्ध हों तो उनका समय भी ईसाकी पहली सदी ही ठहरेगा। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि ईसाकी पहली शताब्दीके दरम्यान ऐसे संयोग थे ज़रूर -कि कुन्दकुन्दाचार्य-जैसे समर्थ लेखक, जैनपरिभाषा या सिद्धान्तका आश्रय लिये बिना धार्मिक ग्रन्थ वहाँकी भाषामें लिखनेके लिए प्रेरित होते । ईसासे पूर्व तीसरी सदीमें भद्रबाहुके आगमन के पश्चात् मैसूरके आस-पास जैनोंने अपने पैर जमा लिये थे; और दो सौ वर्षके बाद वे और भी दक्षिण तक पहुँच गये होंगे। आम जनतामें जैनधर्मका प्रचार करना हो तो उसीकी भाषामें और उसके गले उतरने योग्य रीतिसे उसे उपस्थित करना चाहिए। और जैन आचार्योंका यह तरीका ही था कि वे जहाँ जाते वहाँकी स्थानीय भाषामें ही अपने सिद्धान्तोंका उपदेश करते थे । ऐसी स्थितिमें उन्होंने द्राविड देशोंमें अपने धर्मका प्रचार करने के लिए तामिल भाषाका उपयोग किया हो, यह ज़रा भी असम्भव प्रतीत नहीं होता। कुरलमें आर्य लोगोंके विचारोंकी और आर्यसंस्कृतिकी जो छाप दिखाई देती है, उसका स्पष्टीकरण भी इसी प्रकार किया जा सकता है; क्योंकि जैन उसी समय उत्तर भारत या मगधसे आये। मगधके जैनोंको मगधकी राजनीति और राजकारणका परिचय होना ही चाहिए और यह सम्भव है कि उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें मगधके राजकीय सिद्धान्तोंको सम्मि
१. देखो स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म पृ० ४० ।