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कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्न
प्रतिष्ठित हुए; और बावन वर्षतक उस पदपर रहकर ८५ वर्षके आस-पास निर्वाणको प्राप्त हुए । भिन्न-भिन्न पट्टावलियों में वर्षके ब्योरे में अन्तर है । जैसे - एक पट्टावलीमें बतलाया गया है कि ई० स० ९२ में ( वि० स० १४९ ) उन्होंने आचार्य पद प्राप्त किया था । 'विद्वज्जनबोधक' में उद्धृत एक श्लोकमें बतलाया गया है कि कुन्दकुन्दाचार्य महावीरके बाद ७७० वें वर्षमें अर्थात् ई० स० २४३ में जन्मे थे । उसमें यह भी लिखा है कि तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता उमास्वाति उनके समकालीन थे । परन्तु सबसे पहली बतलायी परम्परा ही अधिक प्रचलित है ।
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भिन्न-भिन्न ग्रन्थों और लेखोंके प्रमाणके आधारपर कुन्दकुन्दाचार्यका समय कितना निश्चित किया जा सकता है, यह अब देखना चाहिए । सबसे प्राचीन दिगम्बर टीकाकार पूज्यपाद स्वामी अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ ( २।२० ) में पाँच गाथाएँ उद्धृत करते हैं । वे पाँचों ही गाथाएँ उसी क्रमसे, कुन्दकुन्दाचार्य के 'बारस अणुवेक्खा' (२५।२९) ग्रन्थमें पायी जाती हैं । पूज्यपाद पांचवीं शताब्दी के मध्यमें हो चुके हैं; अतएव कुन्दकुन्दाचार्य इससे पहले ही हो चुके हैं, इतना तो निश्चित ही हो जाता है । फिर शक ३८८ अर्थात् ई० स० ४६६ के मरकराके ताम्रलेखोंमें छह आचार्योंके नाम हैं और बतलाया गया है कि यह छहों आचार्य कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परा ( 'कुन्दकुन्दान्वय' ) में हुए हैं। किसी आचार्यका अन्वय, उसकी मृत्युके तत्काल बाद आरम्भ नहीं होता । उसे आरम्भ होने में कमसे कम सौ वर्ष लग जाते हैं, ऐसा मान लिया जाय और यह छह आचार्य एकके बाद दूसरेके क्रमसे हुए होंगे, यह भी मान लिया जाय तो कुन्दकुन्दाचार्यका समय पीछेसे पीछे तीसरी शताब्दी ठहरता है ।
कुन्दकुन्दाचार्य के 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थकी टीकामें जयसेन ( बारहवीं शताब्दीका मध्य भाग ) कहते हैं कि कुन्दकुन्दाचार्य ने वह ग्रन्थ 'शिवकुमार महाराज' के बोधके लिए लिखा था । शिवकुमार राजा कौन है इस विषय में बहुत मतभेद है । दक्षिण के पल्लववंशमें : शिवस्कन्द नामक राजा