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________________ उपोद्घात दिशारूपी वस्त्रवाले अर्थात् नग्न और श्वेताम्बर - सफ़ेद वस्त्रवाले - इन दो विभागोंका मुख्य कारण बनी। यद्यपि स्पष्ट रूपसे दो विभाग तो बादमें, वज्रस्वामीके शिष्य वज्रसेनके समयमें ( ई० स० पूर्व ७९ या ८२ में) हुए यह कहा जाता है; तथापि कहना चाहिए कि इस प्रकारका कुछ विच्छेद जैनसंघमें पहलेसे ही चला आ रहा था। क्योंकि महावीरसे पहलेके तीर्थंकर पार्श्वनाथके अनुयायी वस्त्र पहनते थे जब कि महावीरने वस्त्र न पहननेका नियम बनाया था। यह दोनों संघ महावीरके समयमें नहीं तो उनके पश्चात् उनके शिष्य गौतम इन्द्रभूतिके समयमें एक होने लगे थे ऐसा उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र में ही मिलता है। कुछ भी हो, उत्तर भारतमें रहे हुए साधुओंने स्थूलभद्रके समयमें ही पाटलिपुत्रमें एकत्रित होकर दुष्कालके समय लुप्त होनेसे बचे-खुचे आगमग्रन्थोंको एकत्र किया। उन्हें दक्षिण भारतके साधुओंने प्रमाणभूत माननेसे इनकार कर दिया। उन्होंने यह स्थिर किया कि जैनधर्मके आगमग्रन्थ दुष्कालके समयमें नष्ट हो गये हैं । इस प्रकार जब दक्षिणके संघके पास आगमग्रन्थ न रहे तब उस संघको प्रमाणभूत शास्त्रीय ग्रन्थ अर्पित करनेवाले पुरुषोंमें इस रत्नत्रयके कर्ता श्रीकुन्दकुन्दाचार्य थे। वह कौन थे ? किस समय हुए? यह अब देखना चाहिए। २. श्रीकुन्दकुन्दाचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के विषयमें हमें दो कथाएँ मिलती हैं। वह दोनों दन्तकथाएँ कुन्दकुन्दाचार्यके बाद, बहुत समय पीछे लिखी गयी हैं अतएव स्वतन्त्र रूपसे उन्हें कोई आधार नहीं बनाया जा सकता। १. भरतखण्डके दक्षिण देशमें पिदठनाडु जिलेके कुरुमराई नगरमें, करमुण्ड नामक श्रीमान् व्यापारी अपनी पत्नी श्रीमतीके साथ रहता था। १. यह दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यता नहीं -सम्पा० ।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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