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१०२ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न ___ कह सो धिप्पइ अप्पा पण्णाए सोउ घिप्पए अप्पा ।
जह पण्णाइ विहत्तो लह पण्णा एव चित्तबो ॥ प्रज्ञा-द्वारा ही आत्माका ज्ञान हो सकता है। जैसे प्रज्ञा-द्वारा आत्माको अन्य द्रव्योंमें-से जुदा किया है उसी प्रकार प्रज्ञा-द्वारा ही उसे ग्रहण करना चाहिए। 6
पण्णाए चित्तव्यो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयओ।
अवसेसा जे मावा ते मज्झ परंत्ति णायन्वा ॥ प्रज्ञा-द्वारा यह अनुभव करना चाहिए कि जो द्रष्टा है वही मैं हूँ; शेष सब भाव मुझसे पर हैं। ( २९८ )
असुहं सुहं च रूवं ण तं भणइ पिच्छ मंति सोचे । ण य एइ विणिग्गहिउं चक्खुविसयमागयं रूवं ॥ एयं तु जाणिऊण उवसमं व गच्छई मूढो । णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो । अशुभ और शुभ रूप आकर तुझे नहीं कहता कि, तू मुझे देख, और नेत्रसे नजर पड़ते भी उसे रोका नहीं जा सकता। परन्तु तू अकल्याणमयी बुद्धिवाला बनकर उसे स्वीकार करने या त्याग करनेका विचार क्यों करता है ? शान्त - मध्यस्थ - क्यों नहीं बना रहता ? (३७६, ३८२) .
पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुपयाराणि । वित्तं वदंति मूढ़ा लिंगमिणं मोक्खमग्गो ति॥ ण वि एस मोक्खमग्गो पाखंडीगिहिमयाणि लिंगाणि ।
दसण-णाण-चरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ।। विभिन्न सम्प्रदायोंके संन्यासियों या गृहस्थोंके चिह्न धारण करके मूढ़ जन मान लेते हैं कि बस, यही मुक्तिका मार्ग है। परन्तु बाह्य वेष मुक्तिका मार्ग नहीं है । जिनोंने स्पष्ट कहा है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्ष-मार्ग है। (४०८, ४१०)