________________
९९
पारमार्थिक दृष्टिबिन्दु
और यही वास्तविक चारित्र है । ( स० ३६६-८६ )
अज्ञान - शुद्ध ज्ञानसे भिन्न भावोंमें अहं मम - बुद्धि होना ही अज्ञान है । अज्ञान दो प्रकारका है— कर्मचेतना और कर्मफल- चेतना । ज्ञानसे भिन्न भावोंमें 'मैं इसे करता हूँ' ऐसा अनुभव करना कर्मचेतना है और 'मैं इसे भोगता हूँ' ऐसा अनुभव करना कर्मफल- चतना है । यह दोनों अज्ञान-चेतना हैं और संसारके बीज हैं। जो पुरुष पूर्वकालमें अज्ञानसे किये हुए कर्मों के फलोंका स्वामी बनकर उन्हें नहीं भोगता तथा अपने वास्तविक स्वरूपमें ही तृप्त रहता है, वह सर्व-कर्म-संन्यासी एवं सर्व- कर्मफल संन्यासी अपना शुद्ध ज्ञान-स्वभाव प्राप्त करता है। वह ज्ञान शास्त्रगत ज्ञान नहीं है । ग्रन्थ तो अचेतन हैं, उनमें ज्ञान नहीं है अतः ज्ञान भिन्न है । इसी प्रकार शब्द, रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी ज्ञान नहीं हैं, क्योंकि यह सब भी कुछ नहीं जानते। इसी प्रकार कर्म, धर्म, अधर्म, काल और आकाश भी ज्ञान नहीं हैं, अध्यवसान भी ज्ञान नहीं है, अचेतन हैं | आत्मा आप ही ज्ञान है। ज्ञान ज्ञायकसे और आत्मा एक है । यही आत्मा सम्यग्दृष्टि, संयम, ज्ञान, धर्म, अधर्म और संन्यास, सब कुछ है । विवेकशील पुरुष उसका ग्रहण करते हैं । ( स० ३९० - ४०४ )
क्योंकि यह सब अभिन्न है, ज्ञान
इस प्रकार जिसकी शुद्ध आत्मामें स्थिति है, वह कर्म- नोकर्मरूप पुद्गल द्रव्यका आहार ( ग्रहण ) कैसे कर सकता है ? क्योंकि पुद्गल द्रव्य मूर्त है । आत्माके प्रायोगिक ( कर्मसंयोगजनित ) या वैस्रसिक ( स्वाभाविक ) किसी भी गुणसे परद्रव्यका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता । इसलिए विशुद्ध आत्मा जड़ चेतन द्रव्योंमें से न किसीका ग्रहण करता है, न किसीका त्याग करता है । ( स० ४०५-७ )
सच्चा मोक्षमार्ग - जहाँ यह वस्तुस्थिति है वहाँ मूढ़ लोग साधु सम्प्रदायोंके या गृहस्थों के भिन्न-भिन्न लिंग ( चिह्नवेप ) धारण करके यह समझ बैठते हैं कि-यही लिंग मोक्षका मार्ग है। यह कैसी मूढ़ता है !