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उपोद्घात
१. दिगम्बर - परम्परामें श्रीकुन्दकुन्दाचार्यका स्थान
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥
'भगवान् महावीर मंगलरूप हैं, गणधर गौतम मंगलरूप हैं, आर्य कुन्दकुन्दाचार्य मंगलरूप हैं, और जैनधर्म मंगलरूप है ।' शास्त्र-वाचन आरम्भ करनेसे पहले प्रत्येक पाठक मंगलाचरणके रूपमें उल्लिखित श्लोक पढ़ता है। इससे पता चलता है कि जैन परम्परामें, विशेषतः दिगम्बर-सम्प्रदाय में आचार्य कुन्दकुन्दका कितना सम्मान है | महावीर भगवान् और गौतम गणधरके बाद ही उनका स्थान आ जाता है । दिगम्बर साधु अपने आपको कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्पराका कहलाने में गर्व अनुभव करते हैं । बादके बहुतेरे लेखकोंको उनके ग्रन्थोंसे प्रेरणा मिली है और टीकाकार तो उनके ग्रन्थोंमें से बहुत-से अवतरण उद्धृत करते हैं । पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार नामक उनके यह तीन प्रसिद्ध ग्रन्थ ' नाटकत्रय' या 'प्राभृतत्रय' कहलाते हैं । दिगम्बर-परपरामें इनका वही स्थान है जो वेदान्तियोंके 'प्रस्थानत्रय' ( उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता ) का उनकी परम्परामें है ।
दिगम्बर सम्प्रदायका मुख्य धाम दक्षिण देश गिना जाता है । आधुनिक समयमें गुजरात प्रान्तके जैनी और जैनेतरोंको दिगम्बर ग्रन्थोंका परिचय करानेका श्रेय श्रीमद्राजचन्द्रको है । वह स्वयं दिगम्बर सम्प्रदाय के नहीं थे, किन्तु उनके द्वारा स्थापित परमश्रुतप्रभावक मण्डलने हिन्दी अनुवादके साथ बहुत-से दिगम्बर ग्रन्थोंको प्रकाशित किया है जिससे संस्कृत
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