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आचार्य मेरूतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् मे नायक के चरित्र को ही ऊँचा नहीं दिखलाया है वरन् नायिका के चरित्र को भी सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा दिया। कवि ने राजीमती का चरित्र चित्रण करके यह दिखला दिया है कि नारी केवल भोग-विलास की वस्तु नही है, बल्कि वह सच्ची जीवन संगिनी है। नायिका अपने पति की तपस्या मे बाधक न बनकर साधक बन गयी है। कवि ने राजीमती के चरित्र का चित्रण करके नारी जाति को गौरवान्वित किया है और भारतीय नारियों मे आध्यात्मिक समुन्नति का त्वलन्त प्रमाण प्रस्तुत किया है।
जैनमेघदूतम् मे राजीमती की निम्नांकित चरित्रगत विशेषताएं दृष्टिगत होती है।
राजीमती मे हृदयपक्ष की प्रधानता है। वे पुरूष की तरह बुद्धि प्रधान नही है। वे छल, कपट, द्वेष, ईर्ष्या आदि दुर्गुणो से दूर है। उसके हृदय मे दया, प्रेम, करूणा, सहानुभूति आदि जैसे गुण विद्यमान है।
राजीमती के हृदय पक्ष की प्रधानता काव्य में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक दृष्टिगत होती है। वह अत्यधिक भावुक है अपने स्वामी के वियोग में इतना आतुर हो जाती है कि अचेतन मेघ द्वारा अपना सन्देश श्री नेमि के पास भेजती है। उसकी भावुकता को देखते हुए उसकी सखियाँ समझाती है कि 'कहाँ वह अचेतन मेघ और कहाँ कुशल वक्ताओं द्वारा कहा जाने वाला तुम्हारा सन्देश? किसके सामने क्या कह रही हो-यही भी तुम्हे ज्ञात नही:
'किं कस्याये कथयसि सखि! प्राज्ञचूडामणेर्वा नो दोषस्ते प्रकृति विकृतेर्मोह एवात्र मूलम् ।।"
राजीमती के हृदय में श्री कृष्ण की भार्याओं के प्रति किञ्चित् भी ईर्ष्या और द्वेष की भावना नहीं है। वह श्रीकृष्ण की उन पत्नियों को धन्य मानती है
जैनमेघदूतम् ४/३८