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जिन्होने परिवार के सदस्यो की इच्छा से खेलते हुए श्री नेमि को देखा है? वे अपने को अभागिन स्त्री मानती है क्योकि वे जैसे ही अपने स्वामी का स्मरण करती है वैसे ही मूर्च्छित हो जाती है, अतः वह श्री नेमि का स्मरण भी नही कर पाती है:
'धन्यः मन्ये जलधर! हरेरेव भार्याः स याभिदृष्टो दृग्भिः परिजनममुश्छन्दवृत्यापि खेलन्। कस्माज्जज्ञे पुनरियमहं मन्दभाग्यास्त्रिचेली या तस्यैवं स्मरणमपि हा मूच्छनाप्ठ्या लवेन।'
राजीमती श्री नेमि से इतना प्रेम करती है कि उसे श्री नेमि की तुलना मे अन्य राजकुमार पत्थर बहेड़ा कांच के टुकड़े तथा तारे प्रतीत होते है। राजीमती का स्वामी तो उसकी दृष्टि में स्वर्णशिखर, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि तथा सूर्य है। वह अपने स्वामी के वियोग में योगिनी की तरह उनका ध्यान करती हुई सम्पूर्ण जीवन को व्यतीत करने की प्रतिज्ञा कर लेती है। इस प्रकार - वह भारतीय नारी के एक पतित्व के आदर्श को प्रस्तुत की है।
अर्न्तद्वन्द्वता की प्रधानता नारी मे सदैव से विद्यमान रही है। उसमें भावप्रणता होने के कारण अंतः संघर्ष स्वभाविक है। नारी का बाह्य पक्ष गंभीर
और शांत होता है परन्तु उसके अन्तःकरण की थाह कोई नहीं ले सकता है। नारी के हृदय में अर्न्तद्वन्द्वता से परिपूर्ण हजारों लहरें उठती हैं, जिसे समझना कठिन है।
ठीक इसी प्रकार जैनमेघदूतम् की नायिका के अन्तःकरण में अनेक प्रकार के अर्त्तद्वन्द्व उठते है। राजीमती जब श्री नेमि का गवाक्ष से दर्शन करती है वे हाथी पर सवार हुए, नासिका पर दृष्टि लगाये हुए तथा चन्दन राग को
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जैनमेघदूतम् २/२४