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चिलातीपुत्र की तरह ध्यान मे स्थिर रहे। कार्योत्सर्ग पूर्ण होने पर मंत्र, तंत्र गारूड़िक सब प्रयोगों को छोड़कर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के समक्ष ध्यानासन जमाकर बैठ गये। ध्यान के प्रभाव से सारा विष उतर गया। प्रातः कालीन व्याख्यान दैन के लिए आये, संघ मे अपार हर्षध्वनि फैल गई। तदनंतर मेरूतुङ्ग सूरि अणहिलपुर पाटण पधारे। गच्छनायक पद के लिए सुमुहूर्त देखा गया। महीनों पहले उत्सव प्रारंभ हो गया। तोरण बंदरवाल मंडित विशाल मंडप तैयार हुआ। नाना प्रकार के नृत्य वादित्रो की ध्वनि से नगर गुंजायमान हो गया। ओसवाल रामदेव के भ्राता खीमागर ने उत्सव किया। सं. १४४५ फाल्गुन वदी ११ के दिन श्री महेंद्रप्रभसूरि ने गच्छनायक पद देकर सारी गच्छधुरा श्री मेरूतुङ्ग सूरि को समर्पित की। संग्रामसिंह ने पदठवणा करके वैभव सफल किया। श्री रत्नशेखर सूरि को उपचार्य स्थापित किया गया। संघपति नलपाल के सानिध्य मे समस्त महोत्सव निर्विघ्न संपन्न हुए।
सूरि महराज निर्मल तप, संयम आराधना करते हुए योगाभ्यास में - विशेष अभ्यस्त रहते थे। हठयोग प्राणायाम राजयोग आदि क्रियाओं द्वारा नियमित ध्यान करते थे। ग्रीष्म ऋतु में धूप में और शीतकाल की कड़ाके की सर्दी में प्रतिदिन कार्योत्सर्ग करके आत्मा को अतिशय निर्मल करने में संलग्न रहते थे। एक बार आप आबूगिरि के जिनालयों के दर्शन करके उतरते थे, संध्या हो गई थी। मार्ग भूलकर विषमस्थान में पगदण्डी न मिलने पर बिजली की तरह चमकते हुए देव ने प्रकट होकर मार्ग दिखलाया। एक बार पाटण के पास सथवाडे सहित गुरू श्री विचरते थे। यवन सेना ने कष्ट देकर सब साधकों को अपने कब्जे में कर लिया। सूरिजी यवनराज के पास पहुंचे। उनकी आकृति ललाट को देखकर उसका हृदय पलट गया और तत्काल सब को मुक्त कर लौटा दिया। एक बार गुजरात मे मुगलों का भय उत्पन्न होने पर सारा नगर सूना हो गया, पर सूरि श्री खंभात में स्थित रहे। कुछ दिन बाद