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भय समाप्त हो जाने पर सभी वापस लौट आये। सूरिजी बाड़मेर में विराजते थे, लघु पोशाल के द्वार पर सात हाथ का लम्बा सॉप आकर फुंकार करने लगा, जिससे साध्वियाँ डरने लगी लेकिन श्री मेरूतुङ्ग सूरि के प्रभाव से यह विघ्न दूर हुआ। एक बार सूरि जी ने १४६४ में सांचौर चौमासा किया। अश्वपति (बादशाह) विस्तृत सेना सहित चढ़ाई करने के लिए आ रहा था। सब लोग दशों दिशाओं में भागने लगे थे। ठाकुर भी भयभीत थे, सूरिजी के ध्यान बल से यवन सेना सांचौर त्याग कर अन्यत्र चली गई। इस प्रकार सूरिजी के विषय मे अनेको अवदात सुनने को मिलते है । '
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इस प्रकार श्री मेरुतुङ्ग के विषय मे जो अनेकानेक अवदात उल्लिखित हो चुके हैं इन अवदातो के कारण आचार्य को कई उपाधियों से विभुषित किया गया। इन्हें ‘मन्त्रप्रभावक' 'महिमानिधि' आदि मानद उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। आचार्य के प्रभावी उपदेशों के कारण वींछीवाडा, पुनासा, वैडनगर आदि नगरो मे जिनालयों का निर्माण हुआ तथा उनमें धातु प्रतिमाओ की प्रतिष्ठापनाएँ भी हुई।
आचार्य श्री मेरूतुङ्ग सूरि का शिष्यपरिवार भी बहुत बड़ा था। इन्होंने छः आचार्य, चार उपाध्याय तथा एक महत्तरा प्रभृति संख्या - बद्ध पद स्थापित किये एवं दीक्षित किये। इन सभी शिष्यों में सर्वाधिक प्रमुख जयकीर्तिसूरि पट्टधर थे। इसके अतिरिक्त माणिक्य शेखर सूरि, उपाध्याय धर्मानन्दगणि आदि अनेक विद्वान इनके शिष्य थे। इनके साथ एक विशाल साध्वी परिवार भी रहता था। उनमें महिमाश्री जी नामक साध्वी को मेरूतुङ्ग जी ने महत्तरा पद पर स्थापित किया था। साध्वी महिमा श्री द्वारा रचित श्री उपदेश चिंतामणि की अवचुरि प्राप्त होती है।
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श्री आर्य अध्यायगौतम स्मृति ग्रंथ पृ. सं. २५, २६
आ. मेरुतुङ्ग कृत जैन मेघदूतम् - डा. रविशंकर मिश्र भूमिका पृ. सं. ७७