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जो संयममार्ग ग्रहणकर युगप्रधान योगीश्वर होगा। चक्रेश्वरी के वचनो को आदर देती हुई, धर्मध्यान मे सविशेष अनुरक्त होकर माता गर्भ का पालन करने लगी। सं. १४०३ मे पूरे दिनो से पाँचो ग्रहो के उच्च स्थान मे आने पर नालदेवी ने पुत्र को जन्म दिया। हर्षोत्सवपूर्वक पुत्र का नाम वस्तिगकुमार रखा गया। क्रमशः बालक बड़ा होने लगा और उसमें समस्त सद्गुण आकर निवास करने लगे। एक बार श्री महेन्द्रप्रभसूरि नाणि नगर मे पधारे। उनके उपदेश से अतिमुक्त कुमार की तरह विरक्त होकर माता पिता की आज्ञा ले सं. १४१० मे वस्तिगकुमार दीक्षित हुए। वइरसिंह ने उत्सवदानादि मे प्रचुर द्रव्य व्यय किया। सूरि महराज ने नवदीक्षित मुनि का नाम 'मेरुतुङ्ग' रखा। '
दीक्षा के समय वे सात वर्ष के ही थे। गुरू के सानिध्य मे नवोदित बालमुनिवर एक के बाद एक सिद्धियाँ प्राप्त करने लगे। व्याकरण साहित्य, छन्द, अलंकार, ज्योतिष आगम आदि में वे निपुण बने ।
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सं. १४२६ में गुरूदेव ने उन्हें सूरिपद दिया। इस प्रसंग पर संघपति नरपाल श्रेष्ठि ने भव्य महोत्सव किया। अब वे श्री मेरूतुङ्ग सूरि के नाम से प्रख्यात हुए। वे मन्त्रप्रभावक भी थे। वे अष्टांगयोग आदि में नुिपण थे। आचार्य एक बार विचरण करते हुए असाउली नगर पधारे यहाँ यवनराज को प्रतिबोध देकर अहिंसा का मार्ग समझाया। रासकर वर्णन करते हैं कि उसाउल इसाखय बनराउ पडिबोहिंउए । ' कहता लागइ पाख, मास वात छई ते धणिये ।
आचार्य मेरूतुङ्ग के विषय में अनेक प्रभावी अवदात प्रसिद्ध हैं। एक बार सूरिजी संध्यावश्यक कर कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित खड़े थे कि एक काले साँप ने आकर पैर में इस दिया। सूरि महराज मेतार्थ, दमदन्त,
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श्री आर्य अध्याय गौतम स्मृति ग्रंथ पृ. सं. २५
जीवन ज्योति यानि लघु पट्टावली पृ. १०५