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मेघदूत के समान यह भी मन्दाक्रान्ता छन्द मे लिखा गया है। इसकी कथावस्तु इस प्रकार है उज्जयिनी के राजा विजयनरेश तथा उनकी रानी तारा को हर ले गया। राजा पवन के द्वारा रानी को अपना सन्देश भेजता है और मार्ग मे पड़ने वाली नदी पर्वत तथा नगरों में निवास करने वाली स्त्रियों तथा उसकी विलासवती चेष्टाओं का सजीव वर्णन करता है । कवि वादिचन्द्र की प्रतिभा बहुमुखी है। फलतः इनका १६वीं शती का उत्तरार्ध माना गया है। फलतः इनका १६ वी शती का उत्तरार्ध माना गया है अर्थात् १७वीं शताब्दी । पवनदूत काव्य मेघदूत के अनुकरण पर रचा गया है। काव्य में कुल १०५ श्लोक है भाषा सरस एवं प्रसादयुक्त है। इस दूतकाव्य में कवि का धार्मिक, सामाजिक एवं नैतिक दृष्टिकोण बहुत ही ऊँचा है। इस प्रकार शृङ्गार रस के साथ ही साथ इस दूतकाव्य में परोपकार दया अहिंसा और दान आदि सद्भावो की प्रशंसा भी मिलती है। काव्य मे मौलिक कल्पना का स्थान-स्थान पर दर्शन होता है।
मेघदूतसमस्यालेख इस दूतकाव्य के रचयिता मुगल सम्राट अकबर ने जगद्गुरु की उपाधि प्राप्त जैनमुनि श्री मेघविजय है। इस काव्य के अतिरिक्त कुछ अन्य काव्य भी इनके द्वारा रचे गये हैं। इस दूतकाव्य का समय वि. सं. १७२७ में की गई है। यद्यपि कहीं भी काव्य में अलग से कवि का नाम तथा रचनाकाल उल्लिखित नहीं है फिर भी काव्य के अन्तिम श्लोक से कवि के सम्बन्ध में ज्ञान हो जाता है -
माघकाव्यं देवगुरोर्मेघदूतं प्रभप्रभोः
समस्यार्थं समस्यार्थं निर्ममे मेघपण्डितः । । १३१।।
श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर (राजस्थान) से वि. सं. १९७० में प्रकाशित।