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मेघूदत समस्या लेख - (वि. सं. १७२७) उपाध्याय मेघविजय की १३० श्लोको की रचना है, जिसमे कवि ने मेघ के द्वारा यच्छाधिपति विजयप्रभसूरि है।
चन्द्रदूतम् - ' खरतरगच्छीय कवि मुनि विमलकीर्ति ने इस काव्य की रचना की है। मेघदूत अन्तिमचरण की समस्यापूर्ति स्वरूप इस काव्य की रचना हुई है। इस दूतकाव्य की कथावस्तु इसप्रकार है कि कवि ने स्वयं चन्द्र को सम्बोधित कर शत्रुञ्जय तीर्थ में स्थित आदि जिन ऋषभदेव को अपनी वन्दना निवेदित करने के लिए भेजा है। इस दूतकाव्य में स्पष्ट नहीं हो पाता है कि कवि ने किस स्थल पर चन्द्र को नमस्कार कर उसे दूत के रूप में ग्रहण किया है। मन्दाक्रान्ता वृत्त में ही निबद्ध यह काव्य बड़ा ही भावपूर्ण एवं कवि की विद्वत्ताा का परिचायक है। इस दूतकाव्य का रचनाकाल वि. सं. १६८१ है। यह दूतकाव्य अवश्य ही जैनदूतकाव्यों की श्रेणी में विशिष्ट स्थान रखता है।
चन्द्रदूतम्' नामक एक और दूत काव्य का उल्लेख जिनरत्नकोश में हुआ है। जिसके अधार पर वह काव्य विनयप्रभ द्वारा प्रणीत होता है।
पवनदूतम् -* मेरूतुङ्ग के लगभग दो शताब्दी बाद वादिचन्द्र ने पवनदूतम् नामक एक स्वतन्त्र दूतकाव्य का प्रणयन किया है। ग्रन्थ कर्ता ने काव्य के अन्तिम श्लोक मे अपना परिचय दिया है।
संस्कृत साहित्य का इतिहास. पृ. सं. ३३०
-बल्देव उपाध्याय । श्री जिनदत्त सूरि ज्ञान भण्डार, सूरत में वि. सं. २००९ में प्रकाशित।
जिनरत्नकोश पृ. ४६४। " हिन्दी अनुवाद सहित हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई से १९१४ में प्रकाशित।