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सम्प्रेषित करती है। इस काव्य के रचयिता महाकवि आ. मेरूतुङ्ग है। फलतः इस काव्य मे रचनाकाल १४ वी शती का अन्तिम चरण है। जैनमेघदूतम् की भाषा समास युक्त है। काव्य को कवि ने माधुर्य गुण से विभूषित किया है। रस की दृष्टि से काव्य बड़ी उच्चकोटि का है।
शीलदूतम् - ' इस दूतकाव्य के रचनाकार मुनि श्री चरित्रसुन्दरमणि हैं। शील जैसे भाव को दूत बनाना कवि की मौलिक प्रतिभा का परिचायक है। इस दूतकाव्य का रचनाकाल वि. संवत् १४८७ है। काव्य का वर्ण्यविषय यही है कि स्थूलभद्र पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर विरक्त हो जाता है
और पर्वत पर निवास करने लगता है। एकबार भद्रबाहु स्वामी से उसका साक्षात्कार होता है, वह उनसे शिक्षा ग्रहण करता है। गुरू के आदेश से वह अपनी नगरी मे आता है। वहाँ उनकी पत्नी कोशा उन्हे पुनः गृहस्थी में प्रविष्ट होने के प्रार्थना करती है। रानी की प्रार्थना को सुनकर स्थूल भद्र कहते है 'भद्रे! अब मुझे विषयों से राग नहीं है मुझे चित्रकला भी वन के समान प्रतीत होती है। संसार के समस्त सुख अनित्य और क्षण-भंगुर है। ज्ञान और चरित्र ही आत्मा के शोधन में सहायक है।' इसप्रकार स्थूलभद्र की बातें सुनकर कोशा का मन पवित्र हो जाता है। उसकी सारी वासनाएँ जल जाती हैं और वह स्थूल भद्र के चरणों में गिर पड़ती है। वह भी साधना मार्ग में संलग्न हो जाती है। काव्य में कुल १३१ श्लोक है। काव्य में नायक ने अपने शील के प्रभाव से प्रभावित कर अपनी प्रेयसी को जैन धर्म में दीक्षित किया है। इसी
आधार पर इस दूतकाव्य का नाम शीलदूत रखा गया है। कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। काव्य समस्या पूर्ति होने पर भी मौलिक कल्पना का दर्शन होता है। काव्य की भाषा सरस तथा ललित है। कहीं-कहीं सुन्दर-सुन्दर उत्प्रेक्षाएँ प्रयोग में लाई गई हैं।
यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी से वीर संवत २४३९ में प्रकाशित