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इस दूत काव्य मे भी मेघदूत की समस्यापूर्ति की गई है। काव्य में गुरू की महिमा का वर्णन किया है। गुरू के वियोग मे कवि व्याकुल हो जाते है और अपने गुरू आचार्य विजयप्रभसूरि के पास मेघ द्वारा अपनी कुशलवार्ता का सन्देश भेजते है। काव्य में कवि ने गुरू के लिए अपनी व्याकुलता असाहायावस्था का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है।
काव्य का अन्तिम श्लोक अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध है। काव्य में भक्ति रस का प्रयोग है। काव्य पर जैनधर्म का यत्र-तत्र स्पष्ट प्रभाव है। जैसे कवि ने स्थान-स्थान पर जैन प्रतिभाओं और तीर्थकरों का वर्णन है। इससे स्पष्ट होता है कि यह काव्य एक जैन कवि द्वारा रचित जैन धर्म विषयक रचना है। इस दूतकाव्य का दूतकाव्य की परम्परा को आगे बढ़ाने में अपना एक विशिष्ट स्थान है।
इन्दुदूतम् इन्दुदूत के रचयिता श्री विनय - विजयमणि है। प्रस्तुत दूतकाव्य का समय वि. सप्तदश शतक का उत्तरार्ध तथा अष्टादश शतक का पूर्वार्ध है। काव्य की कथा इस प्रकार है श्री विजय प्रभ सुरीश्वर महाराज सूर्यपुर (सूरत) में चतुर्मास बिताते है । उनकी आज्ञा से उनके शिष्य श्री विनय विजयमणि मारवाड़ में जोधपुर नगर मे चतुर्मास बिताने के लिए आ जाते है। चतुर्मास के अन्त में भाद्रपद पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्रमा को देखकर उनका विचार होता है कि उसके द्वारा अपने गुरू के पास वे अपना सांवत्सरिक क्षमापण सन्देश और अभिवन्दन भेजे । चन्द्रमा को दूत काव्य में नियुक्त करने से पूर्व वे उसका स्वागत करते हैं, उसकी कुशलवार्ता पूछते हैं और फिर उसकी तथा उसके संबन्धियों समुद्र, परिजात, लक्ष्मी और रात्रि इत्यादि की भी प्रशंसा करते हैं। अन्त में वे उससे सूर्यपुर (सूरत) जाने और वहाँ वहुँचकर अपने गुरू श्रीतणागण यति को अपनी विज्ञप्ति सुनाने के लिए
संस्कृत के सन्देश काव्य पृ. सं. २१८-२२५
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