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पार्वाभ्युदय -' यह जैनदूतकाव्य परम्परा का यह प्रथम दूतकाव्य है इस काव्य के रचयिता जिनसेन द्वितीय वीरसेन के शिष्य थे। इनका समय अष्टमशती के अन्तिमचरण से लेकर नवमशती के द्वितीय चरण तक मानना सर्वथा समीचीन है (लगभग ७८०-८४०ई०)।
इस काव्य मे चार सर्ग है जिनकी कुल श्लोक सं. ३६४ है। काव्य की भाषा प्रौढ़ है और मेघदूत के समान ही मन्दाक्रान्ता छन्द का व्यवहार किया गया है। समस्या पूर्ति के रूप में मेध्दत के समग्र श्लोक इस काव्य में प्रयुक्त है। समस्यापूर्ति का आवेष्टन तीन रूप मे पाया जाता है: (क) पादवेष्टित मेघ का केवल एक चरण (ख) अर्धवेष्टिट (दो चरण) (ग)
अन्तरितवेष्टित (जिसमे एकान्तरित द्वयन्तरित आदि कई प्रकार है) (एकान्तरित में बीच-बीच मे नये पाद निविष्ट है। द्वयन्तरित में दो पादों के बीच मे दो नये पादों का सन्निवेश है। इस प्रकार मेघदूतीय मन्दाक्रान्ता के समग्र चरण इस काव्य में निवेष्टित कर दिये गये हैं। इसमे २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी की तीव्र तपस्या के अवसर पर उनके पूर्व भव के शत्रु शम्बर - के द्वारा उत्पादित कठोर क्लेशो तथा शृङ्गारिक प्रलोभनों का बड़ा ही रोचक वर्णन किया गया है। मेघूदत जैसे घोर शृङ्गारी काव्य को अनुपम शान्तिसमन्वित काव्य में परिणत करना कवि की श्लाघनीय प्रतिभा का मधुर विलास है। काव्य की शैली कुछ अधिक जटिल है। समस्यापूर्ति के रूप में गुम्फित रहने से मूल पंक्तियों के भाव मे यत्र तत्र विपर्यस्तता आ जाने के कारण काव्य कुछ दुरूह है।
इस दूतकाव्य में पार्श्वनाथ के अनेक जन्म-जन्मान्तरों का समावेश हुआ है। पार्वाभ्युदय की कथावस्तु संक्षेप मे इस प्रकार है कि पोदनपुर के नृपति अरविन्द द्वारा वहिष्कृत कमठ सिन्धु तट पर तपस्या कर रहा था। उसी समय
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संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. सं. ३२७ (आचार्य वल्देव उपाध्याय)