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भातृप्रेम के कारण कमठ का अनुज मरूभूमि उसके पास गया। किन्तु क्रोध आवेश में आकर कमठ ने उसे मार डाला। अनेक जन्मों में यही क्रम चलता रहा है। अन्तिम जन्म मे कमठ शम्बर और मरूभूमि पार्श्वनाथ बनते है' पार्श्वनाथ को साधना से विचलित करने के लिए शम्बर अनेक उपसर्ग करता है, पर पार्श्वनाथ अपने मार्ग से विचलित नहीं होते है। धरणेन्द्र देव और पद्मावती देवी आकर पार्श्वनाथ के उपसर्ग को दूर कर देती है। अन्त मे पार्श्वनाथ ज्ञान को प्राप्त करता है। इस घटना से प्रभावित होकर शम्बर भी पश्चात्ताप करता हुआ पार्श्वनाथ से क्षमायाचना करता है। काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कवि ने समग्र मेघदूत को इस काव्य में समाविष्ट कर दिया है।
नेमिदूतम् - मेघूदत के चतुर्थचरण की समस्या पूर्ति के रूप में दो जैन दूतकाव्य उपलब्ध तथा प्रकाशित है जिनमें एक है नेमिदूत और दूसरा है शीलदूत। नेमिदूत सांगण के पुत्र विक्रम कवि की रचना है। इनके समय तथा चरित का यर्थाथ परिचय उपलब्ध नहीं होता। फिर भी प्रेम जी ने १३वीं शती - और विनय सागर जी ने १४ वीं शती माना है।'
इसमे २२ वे तीर्थकर नेमिनाथ तथा उनकी पत्नी राजीमती का चरित चित्रण किया गया है।
नेमिकुमार विरक्त होकर तपश्चरण के लिए जाने पर विरह विधुरा राजीमती ने एक वृद्ध ब्राह्मण को उनका कुशल सामाचार लेने श्री नेमि की तपोभूमि में भेजा। कुछ समय पश्चात पिता की आज्ञा लेकर स्वयं भी एक साध्वी के साथ वहाँ पहुँचकर अनुनय विनय करती हुई अपने विरह दग्ध हृदय की भावनाओं को प्रलापरूप में व्यक्त करने लगी। पति के त्याग
संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ. सं. ०३२८ आचार्य बल्देव उपाध्याय