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आचार्य मेरूतुङ्ग ने उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रभूत प्रयोग किया है। जैनमेघदूतम् के प्रत्येक सर्ग मे उत्प्रेक्षा अलंकार के प्रयोग दर्शनीय है जो अत्यन्त उच्चकोटि के हैं।
निम्न श्लोक मे कितनी सुन्दर उत्प्रेक्षा प्रस्तुत की है गई है - हा। त्रैलोक्यप्रभुनयनयोः स्पर्धनादेनसां नौ वृत्ते पात्रं प्ररुदित इतीवानुतप्ते सशब्दम् ।।'
अनुतप्ते प्ररुदित इव अर्थात् अनुतप्त होकर रोते हुए से वे कमल सुशोभित हुए, में उत्प्रेक्षा अलङ्कार स्पष्ट है। इसी प्रकार जैनमेघदूतम के चारों सर्गो में उत्प्रेक्षा का प्रयोग मिलता है।
उदात्त अलंकार के निरूपण में भी आचार्य मेरूतुङ्ग ने पर्याप्त रूचि प्रदर्शित की है। वस्तु की समृद्धि का वर्णन 'उदात्त अलंकार' है 'उदात्तं' वस्तुनः सम्पत् ।
निम्नलिखित श्लोक उदात्त अलंकार का सुन्दर उदाहरण है - 'विश्वं विश्वं सृजसि रजसः शान्तिमापादयन् या सङ्कोचेन क्षपयसि तमः स्तोममुन्निहृवानः। स त्वं मुञ्चन्नतिशयनतस्त्रायसे धूमयोने। तद्देवः कोऽप्यभिनवतमस्त्वं त्रयीरूपधर्ता।।'
यहाँ पर धूमयोने अर्थात् मेघ को अखिल विश्व के सृष्टिकर्ता, अन्धकार समूह का विनाश करने वाले, विश्व को क्षय करने वाले, विश्व के पालनकर्ता
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वही ३/१ उत्तरार्ध काव्यप्रकाश १०/११५ जैनमेघदूतम् १/११