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तथा अभिनव त्रिरूपधारी कहा गया है अर्थात् मेघ को समृद्ध तथा श्रेष्ठ बतलाया गया है, अतः यहाँ उदात्त अलंकार की स्पष्ट प्रतीति हो रही है।
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अलंकार के निरूपण मे आचार्य मेरुतुङ्ग सिद्धहस्तता है। अनेक स्थलो पर कवि ने एक ही साथ कई अलंकारों को एक साथ उपस्थित कर अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया है। निम्नलिखित श्लोक में एक साथ छः अलंकारो का प्रयोग बहुत निपुणता के साथ किया है
कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्दुरत्यन्तधीमा
नोवृत्तिं त्रिभुवन गुरू: स्वैरमुज्झाञ्चकार ।
दानं दत्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः पुण्यं पृथ्वीधर - वरमथो रैवतं स्वीचकार । '
उपर्युक्त श्लोक मे ‘कश्चित्कान्तां त्यक्त्वा रैवतं स्वीचकार' कहाँ गया है अतः उसके उपलक्षण के कारण यहाँ अवसर अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है।
कान्तां त्यक्त्वा मे विषयसुख की इच्छा हेतु है इसलिए हेतु अलंकार है। यहाँ दो क्रियाओं का परस्पर सम्बन्ध है जैसे श्री नेमि को त्यागकर पर्वतश्रेष्ठ रैवतक को स्वीकार किया, अतः दीपक अलंकार है । पुण्यं पृथ्वीधर वरं इस कथन से जाति अलंकार भी परिलक्षित होता है। एक ही वाक्य से उसी पर से अन्य अर्थ के उद्भव के कारण श्लेषालङ्कार है। सुरतरुरिव में उपमा अलंकार भी है।
इस प्रकार उपर्युक्त श्लोक में कवि ने एक ही श्लोक में कई अलंकारों को बहुत निपुणता के साथ समाहित किया है।
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जैनमेघदूतम् १/१