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यहाँ एक ही वाक्य से उसी पद से अन्य अर्थ के उद्भव के कारण श्लेष अलङ्कार है जैसे कश्चित् शब्द में श्लेष स्पष्ट होता है। क्यो कि उस पद से श्री नेमिनाथ का बोध हो रहा है इसी प्रकार प्रथम सर्ग के द्वितीय श्लोक मे भी श्लेषालङ्कार की स्पष्ट झलक आती है -
दीक्षां तस्मिन्निव नव गुणां सैषणां चापयष्टिं ।
प्रद्युम्नाद्यामभिरिपुचमू मात्तवत्येकवीरे । तभक्तेतिच्छलितजगता क्लिश्यमाना निकामं
दानं दत्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षः ।
पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकार ।। '
कामेनाशु प्रियविरहिता भोजकन्या मुमूर्च्छ । । '
यहाॅ तस्मिन् एक वीरे श्री नेमि के लिए प्रयुक्त किया गया है 'प्रियविरहिता भोजकन्या' से राजीमती का बोध होता है अतः यहाँ भी श्लेषालङ्कार है। आचार्य ने अन्य कई स्थलों पर श्लेष अलंकार को बहुलता से प्रयोग किया है।' सर्वाधिक श्लेष के प्रयोग से काव्य दुरूह बन गया है अतः कुछ सुबोधता लाने हेतु कवि ने अन्य अलंकारों का आश्रय लिया है।
कवि ने उपमा अलंकार का प्रभूत प्रयोग किया है। इनकी उपमाएं कुछ नवीन प्रतीत होती हैं। इन्होंने कवि सम्प्रदाय में साधारणतया प्रचलित उपमानों का उपयोग न करके पौराणिक दार्शनिक व्यावहारिक आध्यात्मिक नवीन उपमानों का प्रयोग किया है।
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जैनमेघदूतम् १ / १
जैनमेघदूतम् १ / २
जैनमेघदूतम् १ / ७, ११, १४, २०, २१, ३२, ३७, ३९, ४२, ४३, ४८, २/१, २, ४, १०, १८, २७, २९, ३०, ३२, ३३, ३५, ३७, ४०, ४३, ३/४, ६, १२, ३८, ३९, ५
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