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है। इन सभी अलंकारों मे सर्वाधिक अलंकार के रूप मे श्लेष ही प्रयुक्त है। अतः कवि को श्लेषालङ्कार अत्यधिक प्रिय है। श्लेष अलङ्कार को लेकर काव्यशास्त्रियों मे बहुत मतभेद है कि इसे किस वर्ग में रखा जायेगा। अन्त में समाधान यही बन सका है कि श्लेष कहाँ शब्दालङ्कार है और कहां अर्थालङ्कार ? रुद्रट ने 'श्लेषोऽर्थस्यापि' लिखकर श्लेष को उभयालङ्कार माना है। परन्तु रूद्रट के कथन को किसी अन्यरूप में लेकर भोज ने उभयालङ्कार का 'विवेचनाय परिच्छेदमारभते' इस परिच्छेद के अन्तर्गत चौबीस उभयालङ्कारो का वर्णन किया गया है। इन चौबीस अलङ्कारों मे से केवल श्लेष और संसृष्टि को छोड़कर किसी भी दूसरे अलङ्कार को किसी भी परिचित आलङ्कारिक ने प्रभयालङ्कार नही माना है ?
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काव्यशास्त्रकार आचार्य मम्मट ने श्लेष की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत है कि- 'वाच्यभेदेन भिन्ना यद् युगपद् भाषणस्पृशः श्लिषयन्ति शब्दाः श्लेषाऽसावक्षरादिभिरष्टधा।' अर्थात् अर्थ का भेद होने से भिन्न शब्द एक साथ उच्चारण के कारण जब मिलकर एक हो जाते हैं तो श्लेष शब्दालङ्कार होता है।' आचार्य मेरूतुङ्ग को श्लेषालङ्कार सर्वाधिक प्रिय है । श्लेष अलङ्कार के प्रयोग से आचार्य मेरूतुङ्ग की प्रतिभा चमत्कृत हो उठी है इनका श्लेष प्रयोग अत्यन्त उच्चकोटि का है। काव्य के प्रारम्भ में ही श्लेषालङ्कार का दर्शन होता
कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमानेनोवृत्तिं त्रिभुवनगुरूः स्वैरमुज्झाञ्चकार ।
भारतीय साहित्यशास्त्र और काव्यालङ्कार भाग अलङ्कारों का स्वरूप विकास के अन्तर्गत पृ. सं. २३६,७ लेखक डॉ. ओम प्रकाश प्रकाशक नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली २६ दरियागंज, दिल्ली- ११००६, प्रथम संस्करण- १९७३
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काव्यप्रकाश ९/८४