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शोभातिशायिनः रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत्'' अग्निपुराण में अलंकार को काव्य का अनिवार्य धर्म बताया है- काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकार प्रचक्षते।
काव्य में अलंकार की उपयोगिता काव्य के वाच्य वाचक रूप अङ्गी को शोभावर्धकता के ही कारण है जैसा कि लोचनकार ने स्पष्ट कहा हैवाच्यवाचकलक्षणान्यङ्गानि ये पुनः तदाश्रितास्तेऽलङ्काराः मन्तव्याः कटकादिवत् ।' अलंकार का आधार शब्द और अर्थ होते है। इस प्रवृत्ति के बीज भामह मे खोजे जा सकते हैं। काव्यालङ्कार में शब्दार्थों को काव्य का लक्षण दिया गया है, अतः काव्य सम्बन्धी समस्त विशेषताओं का अध्ययन शब्द एवं अर्थ के शीर्षकों में करना स्वाभाविक है। इसी हेतु अलंकार तीन प्रकार के होते है शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार और उभयालङ्कार। जो शब्दपर आश्रित है; शब्द का परिवर्तन हो जाने पर अर्थात् किसी शब्द का पर्यायवाची शब्द रख देने पर जहाँ अलंकार नहीं रहता (शब्दपरिवृत्त्यसहत्व शब्द के परिवर्तन को न सहना) वे शब्दालङ्कार है। किन्तु जो अर्थ पर आश्रित हैं, जहाँ किसी शब्द का पर्यायवाची शब्द रख देने पर जहाँ अलंकार रहता है । (शब्दपरिवृत्तिसहत्व) शब्द के परिवर्तन को सहना) वे अर्थालङ्कार कहलाते हैं। जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनो पर आश्रित है वे उभयालङ्कार है।'
आचार्य मेरूतुङ्ग कृत जैनमेघदूतम् में अनुप्रास, यमक, श्लेष, पुनरुक्तवदाभास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति, दृष्टान्त अप्रस्तुतप्रशंसा, निदर्शना, तुल्योगिता, व्यतिरेक, अतिशयोक्ति, अनुमान, परिकर आदि
अलंकारों की छटा दर्शनीय है। इस प्रकार कवि ने शब्दालंकार, अर्थालङ्कार एवं उभयालङ्कार तीनों प्रकार के अलंकारो का काव्य में यथाविधि प्रयोग किया
साहित्यदर्पण १० ध्वन्यालोक लोचन २.३ काव्यप्रकाश नवम उल्लास: प्र. सं. ४३६-३७