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अर्थात् नगर की स्त्रियों ने वक्षस्थल पर धारित हार की तरह मुख मे हा हा शब्द धारण किया अर्थात् वे हाहाकार करने लगी। फाल्गुन मास मे वृक्षो की पत्तों की तरह सैनिकों के हाथों से अस्त्र गिरने लगे। पर्वत की चोटियो की तरह महलों के शिखर ढहने लगे, शंख की ध्वनि से अति व्याकुल होकर रैवतक भी प्रति ध्वनि के बहाने नाद करने लगा अर्थात् शंख की प्रतिध्वनि उस पर्वत से आने लगी ।
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उपर्युक्त श्लोक में कवि ने गौडी रीति का प्रयोग किया है क्योकि इसमे समास बाहुल्य है तथा ध, छ, ड, भ जैसे महाप्राण वर्णों का प्रयोग है। 'योद्धुर्गुच्छच्छदवदपतन् ' पद मे अनुप्रास वैशिब्ध भी है। इस प्रकार ओजरीति का यह सुन्दर उदाहरण है।
यद्यपि साहित्यदर्पणकार के अनुसार काव्य में पाञ्चाली रीति का कही दर्शन नहीं होता, परन्तु जैसा कि भोजराज ने पाञ्चाली रीति की परिभाषा दी है कि पाञ्चाली रीति वह रीति है जिसमें पाँच या छः पदों से अधिक पद वाले समास नही प्रयुक्त किये जाया करते, जिसमें ओज और कान्ति के गुण विराजमान रहा करते है और जो कि माधुर्य के अभिव्यञ्जक किं वा कोमल वर्णों से पूर्ण पद रचना हुआ करती है। इस परिभाषानुसार जैनमेघदूतम् में कई स्थलो पर पाञ्चाली रीति का दिग्दर्शन होता है। जैसे निम्न श्लोक में पाञ्चाली रीति का प्रयोग दिग्दर्शित होता है
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" तप्ताश्मेव स्फुटति हि हिरुकप्रेयसो हृन्ममैततत्कारुण्यार्णवमुपतदं प्रेषयाम्यब्दमेतम् ।
मन्दं मन्दं स्वयमपि यथा सान्त्वयत्येष कान्तं
जैनमूघदूतम् १ / १