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जैनमेघदूतम् और रीतियाँ जैनमेघदूतम् में वैदर्भी गौडी, पाञ्चाली तथा लाटी रीतियो मे से कवि ने मुख्यतः गौडी रीति का ही प्रयोग किया है। पाञ्चाली रीति का भी दर्शन कई स्थलो पर होता है।
श्री नेमि द्वारा शंख बजाने के प्रभाव का वर्णन कवि ने अत्यन्त ओजपूर्णता से व्यक्त किया है जिसमें गौडीरीति का प्रयोग हुआ है
"तस्मिन्नीशे धमति जलजं छिन्नमूलद्रुवत्ते शस्त्राध्यक्षाः सपदि विगलच्चेतना पेतुरुक्म् आश्वं चाशु व्यजयत मनो मन्दुराभ्यः प्रणश्यन्मूढात्मेवामुचत चतुरोपाश्रयं हास्तिकं च।।"
श्रीनेमि प्रभु ने शंख बजाते ही शस्त्राध्यक्ष, जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति, संज्ञाशून्य होकर, तत्काल पृथ्वी पर गिर पड़े। अश्वशाला छोड़कर भागते हुए घोड़ो। ने अपनी गति से मन को भी पराजित कर दिया हाथियो ने भी गजशाला का उसीप्रकार त्याग कर दिया, जिसप्रकार मूर्ख विद्वान का आश्रय छोड़ देता है अर्थात् भयवश विद्वानो की सभा से चला जाता है।
आचार्य ने निम्नलिखित श्लोक में ओज रीति का सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत किया है
'हारावाप्तीरदधत हृदीवानने पौरनार्यो योद्भुर्गुच्छच्छदवदपतन् फाल्गुनेऽस्त्राणि पाणेः। प्राकाराग्रयाण्यपि विजगलुर्गण्डशैला इवानेः पूच्चक्रे च प्रतिरुतनिभाद्भरिभीरुज्जयन्तः।।" जैनमेघदूतम् १/३६.