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'समस्त पञ्चषपदामोजः कान्तिसमन्विताम्। मधुरां सुकुमारां च पाञ्चाली कवयो विदुः।।"
लाटी वह रीति है जिसमें वैदर्भी और पाञ्चाली दोनो रीतियों की विशेषताएं विराजमान रहा करती है।
लाटी तु रीतिवैदर्भी पाञ्चाल्योरन्तर स्थित।' आचार्य रूद्रट के अनुसार गौडी पाञ्चाली लाटी का स्वरूप विवेक वह
पाञ्चाली लाटीया गौडीया चेति नामतोऽभिहिता लघुमध्यायतविरचना समासभेदादिमास्तत्र।। द्वित्रिपदा पाञ्चाली लाटीया पञ्च सप्तवा यावत् शब्दाः समासवन्तो भवति यथाशक्ति गौडीया।।'
किसी काव्याचार्य के मत में लाटी का स्वरूप यह है लाटी रीति ऐसी - हुआ करती है जिसमें संयुक्त वर्णो का प्रयोग स्वल्पमात्र में ही हुआ करता है
और जिसमे प्रकृतोपयुक्त से रमणीय वर्ण्य वस्तु की एक अपनी ही छटा छिटका करती है।
कतिपय काव्याचार्यों ने रीति चतुष्टय का यह सक्षिप्त स्वरूप बताया
__ वैदर्भी रीति का अभिप्राय 'मधुरबन्ध,' गौडी का अभिप्राय मिश्रबन्ध और ‘लाटी रीति' का अभिप्राय 'मृदुबन्ध' है।
साहित्यदर्पण पृ० सं० ६६१, ९ परिच्छेद साहित्यदपर्ण ९/ पृ० सं० ६६१ काव्यलंकार २/४/५