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मत्सन्देशैर्दवमिव दवप्लुष्टमुत्सृष्टतोयैः ।।'
अर्थात् यह मेरा हृदय स्फुट रूप से प्रिय के बिना तप्त पाषाण की भाँति विदीर्ण हो रहा है, इस कारण मैं सामने दृश्यमान करुणा के सागर मेघ को अपने प्रेयस के समीप भेजती हूँ। जिस प्रकार यह मेघ अपने मुक्त जल से दावानल से दग्ध वन को धीरे शान्त करता है, उसी प्रकार यह मेरे स्वामी के हृदय को भी मन्द-मन्द गति से स्वयं ही मेरे सन्देश के द्वारा सात्त्वना देगा।
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उपर्युक्त श्लोक के माधुर्य के अभिव्यञ्जक कोमल वर्णों से पूर्णपद रचना है जैसे मन्दं मन्दं आदि। साथ ही ओज और कान्ति के गुण भी विराजमान हैं अतः भोजराज की परिभाषा के अनुसार उपर्युक्त श्लोक में पाञ्चाली रीति का प्रयोग स्वीकार किया जा सकता है।
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काव्य के द्वितीय सर्ग में भी पाञ्चाली रीति का निदर्शन मिलता है जिसमे माधुर्य गुण के अभिव्यञ्जक किं वा कोमल वर्णों से पूर्ण पद रचना प्रस्तुत की गई है
पूरं पूरं सुरभिसलिलैः स्वर्णशृङ्गाणि रङ्गात् । सारङ्गाक्ष्यः स्मितकृतममुं सर्वतोऽप्यभ्यषिञ्चन् ।
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धारा धाराधर । सरलगास्ताश्च वारामपाराः
स्मारादोऽङ्गप्रसृमरशरासारसारा विरेजुः ।। " "
अर्थात् सारङ्गाक्षी उन रमणियों ने अपनी अपनी स्वर्णिम पिचकारियो को सुरभित जलों के रंगो से भर कर मुस्कुराते हुए उन भगवान श्रीनेमि को सराबोर कर दिया। हे मेघ । सीधे जाती हुई जल की वे अपार धाराएं भगवान श्री नेमि के अङ्गों की ओर चलाये गये काम के वाणों की वृष्टि सी शोभित हो रही थी।
जैनमेघदूतम् १ / ८
जैनमेघदूतम् २/४५