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तथापि न तदाख्यातु सरस्वत्यापि पार्यते।'
रीति चतुष्टय की मान्यता मे साहित्यदर्पणकार का अभिप्राय वस्तुतः यही है कि 'जब काव्य रसात्मक वाक्य है तो रीति इसकी एक विशेषता अवश्य है। भावप्रकाशकार की काव्य समीक्षा को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है, रीति चतुष्टय का यह संकेत ध्यान देने योग्य है -
प्रतिवचनं प्रतिपुरुषं तदवान्तरजातितः प्रतिप्रीति। आनन्त्यात् संक्षिष्य प्रोक्ता कविभिश्चतुर्धेव त एवाक्षरं विन्यासास्ता एवाक्षरपक्तयः पुंसि पुंसि विशेषेण कापि कापि सरस्वती।
रीति चतुष्टय मे वैदर्भी वह रीति है जिसे माधुर्य अभिव्यञ्जक वर्गों से पूर्ण असमस्त अथवा स्वल्प समासयुक्त ललित रचना कहा गया है "माधुर्य व्यञ्जकैर्वर्णं रचना ललितात्मिका। आवृत्तिरल्पा वृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते।'
वैदर्भी के सम्बन्ध मे महाकवि श्रीहर्ष की यह सूक्ति बड़ी सुन्दर हैधन्यसि वैदर्भी गुर्णरूदौरर्यया समाकृष्यत् नैषधोऽपि। इति स्तुतिः का खलु चन्द्रिकाया यदप्धिमप्युत्तरं स्वीकरोति।'
वैदर्भी के सम्बन्ध मे (काव्यालंकार के रचयिता) आचार्य रूद्रट का यह मत है -
असमस्तैकमासयुक्ता दशभिर्गुणैश्च वैदर्भी।
काव्यदर्श १-१०१-१०२ भावप्रकाश पृष्ठ ११, १२ साहित्यदर्पण पृ० ६६०, परिच्छेद ९ नैषधीयचरित ३, ११६