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काव्य मे रीति तत्त्व क्या है? इसका विचार विमर्श किया जा रहा है। साहित्यदर्पणकार ने 'रीति' की परिभाषा जो निरूपित की है वह इस प्रकार है - रीति अङ्ग रचना की भाँति पद रचना अथवा पद संघटना है जो कि रसभावादि की अभिव्यञ्जना मे सहायक हुआ करती है? ‘पद सघटना रीतिः रङ्ग संस्थाविशेषवता उपकी रसादीनाम्।'
__साहित्यदर्पणकार के अनुसार रीति और संघटना एक ही वस्तु है। रीति अथवा 'संघटना' रस अभिव्यक्ति की निमित्तभूता है और इसीलिए साहित्यदर्पणकार ने उसे रसभावादि का उपकी माना है। काव्यप्रकाशकार ने रीति तत्त्व पर कोई विशेष प्रकाश नहीं डाला क्यो कि प्राचीन ध्वनिवादी आचार्यो की दृष्टि में ‘वृत्ति' और 'रीति' का रहस्य वर्णसंघटना वैशिष्ट के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। ध्वनिकार का स्पष्ट कथन है - ___वर्णसंघटना धर्माश्च माधुर्यादयस्तेऽपि प्रतीयन्ते तदनतिरिक्त वृत्यो वृत्तयोऽपि याः कैश्चिदुपनागरिकाद्याः प्रकाशिताः, ता अपि गताः श्रवणोगोचरम् रीतियश्च वैदर्भी प्रभृतयः।
रीति चार प्रकार की है - वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली और लाटी।'
रीतिचतुष्टय में वैदर्भी और गौडी की मान्यता में भामह और दण्डी की यह उक्ति प्रमाण है -
इति मार्गद्वयं भिन्नं तत्स्वरूपनिरूपणात्। तभेदास्तु न शक्यन्ते वक्तुं प्रतिकविस्थिताः। इक्षक्षीर गुडादीनां माधुर्यस्यान्तरं महत् ।
साहित्यदर्पण १/१, साहित्यदर्पण नवम परिच्छेद पृ०सं० ६५८ साहित्यदर्पण पृ० ६५८ १/१