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अर्थात श्री नेमि प्रभु शंख बजाते ही शस्त्राध्यक्ष, जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति, संज्ञाशून्य होकर, तत्काल पृथ्वी पर गिर पड़े अश्वशाला छोड़कर भागते हुए घोड़ो ने अपनी गति से मन को भी पराजित कर दिया, हाथियों ने भी गजशाला का उसी प्रकार त्याग कर दिया जिस प्रकार मूर्ख विद्वान् का आश्रय छोड़ देता है अर्थात् भयवश विद्वानों की सभा से चला जाता है।
नगर की स्त्रियो ने वक्षस्थल पर धारित हार की तरह मुख मे हा-हा शब्द धारण किया अर्थात् वे हाहाकार करने लगी फाल्गुन मास मे (गिरते हुए) वृक्षो के पत्तों की तरह सैनिकों के हाथ से अस्त्र गिरने लगे। पर्वत की चोटियो की तरह महलों के शिखर ढहने लगे शंख की ध्वनि से अतिव्याकुल होकर रैवतक भी प्रतिध्वनि के बहाने नाद करने लगा अर्थात् शंख की प्रतिध्वनि उस पर्वत से आने लगी। शंख की गम्भीर ध्वनि से डरकर 'अब जो होने वाला है वही होगा' इस भयाक्रान्त लज्जा के कारण ही वीर लोग राजसभा मे ठिठके रह गये 'यह क्या हो गया' इस प्रकार चकित होकर श्री कृष्ण व्याकुल हो उठे।
श्रीनेमि तथा श्रीकृष्ण के बीच भुजबल की परीक्षा को आचार्य ने ओजपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया हैं श्रीकृष्ण तथा श्री नेमि के भुजबल को देखने के लिए मनुष्य और देवगण पृथिवी और आकाश मण्डल में शीघ्र एकत्र हो गये। सभी के रक्षक श्री नेमि के वाम हस्त से स्पर्श करते ही श्री कृष्ण की अत्यन्त सुदृढ़ की हुई भुजलता कन्धे तक स्वयं झुक गयी। हस्ते सव्ये स्पृशति किमपि स्वामिनोऽनेकयस्य, न्यस्तास्कन्धं हरिभुजलता सा स्वयं स्तब्धितापि।'
जैनमेघदूतम् १/३६ जैनमेघदूतम् १/३८ जैनमेघदूतम् १/४४