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राजीमती की अन्तः करण की सलिला कगारो को तोड़कर बह जाती है और वह योगिनी के रूप में जीवन व्यतीत कर डालने की प्रतिज्ञा कर लेती है।
क्व ग्रावाणः क्व कनकनगः क्वाक्षकाः क्वाभरद्रुः काचांशाः क्व क्व दिविजमणिः क्वोडुपः क्व धुरत्नम् । क्वान्ये भूपाः क्व भुवनगुरुस्तस्य तद्योगिनीव ध्यानान्नेष्ये समयमिति ताः प्रत्यथ प्रत्यजानि।।'
अर्थात हे मेघ। कहाँ पत्थर और कहाँ स्वर्ण शिखर? कहाँ बहेड़ा और कहाँ कल्पवृक्ष? कहाँ कांच के टुकड़े और कहाँ चिन्तामणि, कहाँ तारे और कहाँ भगवान् सूर्य? कहाँ अन्य राजकुमार और कहाँ त्रिभुवनगुरु श्री नेमि प्रभु? अतः मैने सखियो के समक्ष ही यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं योगिनी की तरह उन भगवान श्री नेमि के ध्यान में ही अपना सारा जीवन व्यतीत कर लूँगी।
आचार्य मेरूतुङ्ग ने राजीमती के अन्तः भावों की व्यक्त करने के लिए - विशिष्ट शब्दो का आश्रय लिया है तथा उसे माधुर्य गुण से विभूषित किया है। इससे उनके रचना कौशल में और भी निखार आ गया है।
कवि ने ओजगुण का प्रयोग करके अपनी प्रवीणता का परिचय दिया है। एक स्थल पर आचार्य ने ओज गुण का उत्कृष्ट रूप दिखाने का प्रयास किया है। एक बार श्री नेमि श्री कृष्ण के शस्त्रागार में प्रविष्ट होते हैं। वहाँ पाञ्चजन्य शंख को देखकर बजा देते है। शंख बजते ही प्रलयकारी स्थिति आ जाती है इसका कवि ने बहुत ओजपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है:
तस्मिन्नीशे धमति .......... हस्तिकं च'
जैनमेघदूतम् ३/५४ जैनमेघदूतम् १/३६