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व्यभिचारी भाव के सन्दर्भ में विचार करने पर हम देखते है कि व्यभिचारी भावों के ३३ भेदों में से ग्लानि नामक व्यभिचारी भाव की बहुलता मिलती है। ग्लानि का तात्पर्य है शरीर वाणी और मन के व्यापारो मे ग्लापन (दुर्बलता)। ग्लानि का उदाहरण अनेक स्थानोंपर प्राप्त होता है उदाहरणार्थ राजमती श्री नेमि के वियोग मे बार-बार मुर्छित हो जाती है अपने को धिक्कारती हुई कहती है कि हे हृदय तुम दो टुकड़े क्यों नही हो जाते। अन्ततः श्री नेमि के वियोग से राजीमती को इतना अधिक ग्लानि है कि वह आत्महत्या करने को तुल जाती है। इसप्रकार आचार्य मेरूतुङ्ग ने रस के सभी तत्त्वों को सफलता पूर्वक समाहित करने का प्रयास किया है।
इस प्रकार जब हम विप्रलम्भ शृङ्गार रस के प्रकारो पर विचार करते है तो हम देखते है कि पूर्वराग का कुछ अंश काव्य के प्रारम्भ मे मिलता है। जब राजीमती श्री नेमि का गवाक्ष से साक्षात् दर्शन करती है, वह उन पर अनुरक्त हो जाती है यह समागम से पूर्व की स्थिति है। परन्तु यह अनुरक्त भाव केवल राजीमती में है, श्री नेमि तो पूर्णतः राग शून्य है। । ___आचार्य मेरूतुङ्ग ने विप्रलम्भ शृङ्गार रस के अन्तिम प्रकार करुण का भी प्रयोग अपने काव्य में किया है। जैनमेघदूतम् काव्य का प्रारम्भ ही वियोग की अतिकारूणिक स्थिति से होता है। नायक श्रीनेमि विवाह-भोज के लिए काटे जाने वाले पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर विरक्त हो जाते हैं और विवाह स्थल से तत्काल ही वापस होकर पर्वतश्रेष्ठ पवित्र रैवतक पर आत्मशान्ति एवं अध्यात्मिक सुख प्राप्ति हेतु चले जाते हैं। श्री नेमि के वैराग्य धारणा की सूचना पाते ही कामपीड़िता राजीमती मूर्छित हो जाती है।' विप्रलम्भ शृङ्गार रस में १० कामदशाएँ होती हैं- उनमें अभिलाप, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, संप्रलाप उन्माद, व्याधि, जड़ता, मृति (-) इत्यादि।
जैनमेघदूतम् १/२