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उसमे ‘उन्माद' जिसमें कि जड़ चेतन मे विवेक नहीं हो पाता है यही जड़ चेतन के विवेक का अभाव राजीमती में है तभी तो वे अचेतन मेघ को श्री नेमि के पास दूत बनाकर भेजती है। 'व्याधि' नामक कामभावना का भी वर्णन है इसके अन्तर्गत दीर्घनिःश्वास पाण्डुता, कृशता आदि आते है। इस काव्य मे भी दीर्घ निःश्वास, पाण्डुता, कृशता का वर्णन है -
ध्यात्वैवं सा . . . . मुग्धावाचेत्युवाच।।
अर्थात् नवीन मेघों से सिक्त भूमि की तरह निःश्वासों को छोड़ती हुई तथा मद के आवेग के कारण युक्तायुक्त का विचार न करती हुई राजीमती, मेघमाला जिस प्रकार प्रभूत जल को बरसाती है उसी प्रकार अश्रुओ की धरावृष्टि करती हुई दुःख से अति दीन होकर पूर्व मे कहे गये के अनुसार ध्यान करके मधुर वाणी में मेघ से बोली।
इस प्रकार निःश्वास आदि को व्याधि नामक कामभावना में समाहित कर सकते हैं। युक्तायुक्त का विचार न कर पाना एक प्रकार की मानसिक निःश्चेष्टा है अतः इसे हम जड़ता नामक कामभावना में समाहित कर सकते हैं।
आचार्य विश्वनाथ आदि के अनुसार विप्रलम्भ शृङ्गार रस के अन्तर्गत मरण का वर्णन निषिद्ध होता है क्यों कि इससे रस विच्छिन्न हो जाता हैं यदि इसका वर्णन किया भी जाता है तो मरणासन्न के रूप में या मरण की हार्दिक अभिलाषा के रूप में। अतः आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने इस काव्य में राजीमती के मरण की अभिलाषा को प्रकट किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि शृङ्गार रस के दोनों पक्षों संयोग तथा विप्रलम्भ शृङ्गार रस का प्रयोग करते समय उनमें विद्यमान सभी विशेषताओं का समावेश किया गया है जिससे कहीं भी रस अवच्छिन्न नहीं हुआ है।
जैनमेघदतम् १/९