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अर्थात् सख्यिों के द्वारा शोक गद-गद वचनो के साथ शीघ्र ही किये
गये लोक-प्रसिद्ध चन्दन - जर्ला वस्त्रादि प्रभूत - शीतोपचार के द्वारा किसी प्रकार चेतन के लौटने पर राजीमती ने पति के हृदय मे तीव्र उत्कण्ठा जगाने वाले मेघ वर्षाकाल में नये-नये ऊँचे मेघो को देखकर युवतियों के मन में अपने प्रिय के प्रति तथा युवको के मन में अपनी प्रिया के प्रति सहजतया उत्कण्ठा उत्पन्न हो जाती है - को देखा और सोचा
अतः उपर्युक्त श्लोक मे उद्दीपन विभाव का अवलोकन होता है। यहाॅ उद्दीपन विभाव के रूप मे मेघ युवक युवतियों के हृदय में स्थित रतिभाव को जागृत करके अपने प्रेमी तथा अपनी प्रेयसी केप्रति उत्कण्ठा उत्पन्न करता है।
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आचार्य भरतमुनि ने अनुभाव की परिभाषा देते हुए कहा है कि 'जिनके द्वारा वाचिक आंगिक और सात्त्विक अभिनय अनुभावित होते हैं उसे अनुभाव कहते है। जैनमेघदूतम् में वाचिक आंगिक तथा सात्त्विक अभिनय अनुभावित होते है
नीलेनीले शितिलपनयन् वर्षयत्यश्रुवर्षन्
गर्जत्यस्मिन् पटु कटु रटन् विद्ययत्यौष्ण्यमिर्यन् ।
वर्षास्वेवं प्रभवति शुचे विप्रलब्धोऽम्बुवाहे
वामावर्ग: प्रकृतिकुहनः स्पर्धतेऽनेन युक्तम् ।। '
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अर्थात् वर्षाकाल में स्वभाव से ईर्ष्यालु विरहिणी स्त्रियाँ अपने शोक को उत्पन्न करने वाले मेघ से जो ईष्या करती हैं वह ठीक ही है (क्योंकि) मेघ के नील तुल्य श्यामवर्ण वाला होने पर वे भी मुख को श्याम बना लेती हैं। जब मेघ बरसता है तब वे भी अश्रु बरसाती है, जब वह गरजता है तो विरहिणी
जैनमेघदूतम् १/६