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ईर्ष्या होती है अथवा स्वयं रसकान्त से अनुराग उत्पन्न हो जाता है या उनसे द्वेष हो जाता है, यही बात काव्य में होने लगेगी। किन्तु काव्य में ऐसा होता नहीं। उसमे दो व्यक्तियो के प्रेम का अभिनय देखकर या उसका वर्णन पढ़कर सहृदय के हृदय में स्वतः आनन्द उत्पन्न हो जाता है जो लोक मे नहीं होता। अतः रस अनुकार्यगत नहीं होते। व्यंग्य वहीं वस्तु होती है जो अन्य प्रकार से विद्यमान सिद्ध की जा सके। उदाहरण के लिए दीपक से घड़ा व्यक्त होता है। रस पहले से राम इत्यादि में नही माना जाता हैं अतः रस की व्यंजना व्यापार के द्वारा प्रतीति सिद्ध नहीं की जा सकती। अब नर्तक की रसाधिष्ठानता का प्रश्न शेष रह जाता है। इस विषय मे धनिक का मत है कि नर्तक को रस का अधिष्ठान मानने में कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु उस समय वह रसास्वादन परिशीलक के रूप में करेगा, नर्तक के रूप में नहीं।