________________
145
रस का अधिष्ठान क्या है ? (धनञ्जय और धनिक का रस विषयक दृष्टिकोण)
संस्कृत काव्यशास्त्र में इस प्रश्न पर भी विचार किया गया है कि रस का अधिष्ठान क्या है? रस का आस्वाद्य कोई रसिक व्यक्ति करता है; वह रस उसके ही अन्दर होता है या कहीं अन्यत्र या तो मूलपात्र मे हो सकता है या उसका अभिनय करने वाले नर मे। धनिक का इस विषय में मत यह है कि रस रसिक मे ही विद्यमान रहता है : क्योकि वही आस्वादन करता हैं परगत वस्तु का कोई आस्वादन नहीं कर सकता। रस को हम मूलपात्रगत नहीं मान सकते। इसमें कई कारण हैं- एक तो शमादि मूल पात्र जिनका अभिनय किया जाता है, इस समय विद्यमान नहीं होते। वे अतीत की वस्तु हो चुके होते है अतः उनके भाव का बन जाता है। यद्यपि भर्तृहरि जी ने कहा है कि शब्द मे बिम्ब बनाने की शक्ति होती है। इस प्रकार वर्णना के आधार पर हमारे अन्तः करणों में रामादि के बिम्ब का निर्माण हो सकता है। पर बिम्ब विभावादि रूपता के सम्पादन मे ही कारण होता। आस्वाद प्रवर्तक नही हो सकता। कारण रूपता मे उसका उपयोग हो सकता है, स्वरूप सम्पादन में नही। दूसरी बात यह है कि कवि ऐतिहासिक राम में रसोत्पादन के लिए काव्यरचना नहीं करता; किन्तु उसका उद्देश्य सहृदयों को आनन्द देता है। सहृदयो को रससम्बद्ध आनन्द की ही प्राप्ति हो सकती हैं अतः रस को स्वगत या हृदयगत ही मानना चाहिए। एक अन्य तर्क यह है कि यदि अनुकार्यगत रस माना जायेगा तो जिस प्रकार दो व्यक्तियों को एक देखकर यह प्रतीति हो जाती है कि अमुक व्यक्ति' में परस्पर रति है अथवा उन व्यक्तियों को खुले में प्रेम प्रदर्शन करते देखकर लज्जा का अनुभव होता या
भारतीय नाट्यशास्त्र और रंगमंच- डॉ० राम सागर त्रिपाठी। प्रथम संस्करण १९७१ प्रकाशक- अशोक प्रकाशन, नई सड़क, दिल्ली।