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ही ढंग से स्पष्ट किया है
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अनुभाव का संक्षिप्त अभिप्राय नाट्यदर्पणकार ने इस पंक्ति में अपने
लिङ्गिनं
रसमित्यनुभावा: स्तम्भादयः । "
'अनु लिङ्गनिश्चयात् पश्चात् भावयन्ति गमयन्ति
१
अनुभाव का स्वरूपं आचार्य धनञ्जय ने इस प्रकार से प्रस्तुत किया है - 'अनुभावो विकारस्तु भावसूचनात्मकः । "
अर्थात् (रति आदि) भावो को सूचित करने वाला विकार (शरीर आदि का परिवर्तन) अनुभाव है।
२
अनुभावों का तात्पर्य मनोगत भावों के साक्षात् अभिव्यञ्जक उपादानों जैसे कि भ्रविक्षेप आदि से है। मनोगत भावों के ये साक्षात् अभिव्यञ्जक उपादान इसलिए 'अनुभाव' कहे जाते हैं क्यों कि रत्यादिरूप मनोगत भावों के उद्बोधन मे ही इनकी उत्पत्ति सम्भव है। भ्रूविक्षेप आदि का अनुभाव होना यह सिद्ध करता है कि इनके द्वारा हेतुभूत रत्यादि भावों की अभिव्यक्ति होती है। अनुभावों की चार श्रेणियाँ है -
(१) चित्तारम्भक, जैसे कि भाव- हाव-हेला आदि
(२) गात्रारम्भक, जैसे कि लीला, विलास, विच्छित्ति आदि ।
(३) वागारम्भक,
जैसे कि आलाप,
३
(४) द्ध्यारंभक, जैसे कि रीति, वृत्ति आदि ।
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नाट्यदर्पण तृतीय विवेक
दशरूपकम् ४/३ पृ. सं. २६१
साहित्यदर्पण ३ पृ. सं. २०१
विलाप, संलाप आदि