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इति)' शरीर के विभिन्न अङ्गों तथा उपाङ्गों की चेष्टाओं द्वारा किये जाने वाले अभिनय से अनुभावों का सम्बन्ध स्थापित करते हुए नाट्यशास्त्र (४/३) में कहा गया है कि वे आन्तरिक भावो के सूचक है इसलिए वहाँ भ्रू-कटाक्ष आदि विकारो को अनुभाव की संज्ञा दी गयी है।'
'अनुभावो विकारस्तु भावसंसूचनात्मकः।'
आचार्य भरत ने विभावों तथा अनुभावों को लोकप्रसिद्ध माना है, क्यो कि वे मानव स्वभाव के अंग है, लोक मे उनकी स्थिति स्वाभाविक है। विज्ञजनो का कहना है ( नाट्यशास्त्र ७/६) कि — विभाव तथा अनुभाव लोक प्रवृत्ति के अनुसार होते हैं। लोक जैसा व्यवहार करता है, वे तदानुसार उसका अनुकरण करते हैं इसलिए लोक में प्राप्त ज्ञान के आधार पर ही नाट्य में उनका प्रदर्शन होता है।
लोकस्वभावसंसिद्धा लोकयात्रानुगामिनः। अनुभावा विभावाश्च ज्ञेयास्त्वाभिनये बुधैः।।
अनुभाव वस्तुतः रसानुभूति की बाह्य अभिव्यंजना के साधन है और उनमें शारीरिक व्यापार की प्रमुखता होती हैं। अभिनेता कृत्रिम रूप मे इन अनुभावो का अभिनय करता हैं। अनुकार्य दुष्यन्त आदि की अन्तस्थ रसानुभूति की बाह्य अभिव्यक्ति अनुभावो के रूप में होती हैं। रसानुभूति के अनन्तर उत्पन्न होने के कारण उन्हें अनुभाव नाम दिया गया है (अनु पश्चात् भवन्ति इत्यनुभावाः)।'
साहित्यदर्पणकार अनुभाव का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते है - 'उद्बद्धं कारणैः स्वैः स्वैर्बहिर्भावं प्रकाशयन्।
भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण पृ. सं. १७२ भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनयदर्पण पृ. सं. १७२-१७३