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'ज्ञायमानतया तत्र विभावो भावपोषकृत् '
रस के उद्भावको मे विभाव वह है जो स्वयं जाना हुआ होकर (स्थायी) भाव को पुष्ट करता है।' यह विभाव-मीमांसा रस-चर्वणा के साधन रूप में बाद के नाट्याचार्यो ने स्वीकृत की है । दशरूपककार ने इसीलिए कहा है - काव्य नाट्य के क्षेत्र मे जनकतनयादि विशेषताओं से शून्य, वस्तुतः साधारणीकृत सीतादि को 'विभाव' कहा करते हैं। ऐसा इसलिए क्यों कि इसी से सामाजिक हृदय मे रत्यादि वासनायें स्फुरित हुआ करती है। ' नाट्यदर्पणकार की भी यही विभाव दृष्टि है
'वासनात्मतया स्थितं स्थायिनं रसत्वेन भवन्तं विभावयन्ति, आविर्भावनाविशेषेण प्रयोजयन्ति इत्यालम्बनोद्दीपनरूपा ललनोद्यानादयो विभावाः,' विभाव के दो प्रकार होते है। (१) आलम्बन और (२) उद्दीपन । जिसको आलम्बन करके या आश्रय मान कर रस की उत्पत्ति या निष्पत्ति होती है, उसे आलम्बन विभाव और जिसके द्वारा रति आदि स्थायी भावों व उद्दीपन होता है, उसे उद्दीपन विभाव कहते हैं। उदाहरणार्थ शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के मन में रति की उत्पत्ति होती है, उक्त दोनों को देखकर सामाजिको के मन में भी रस की उत्पत्ति होती हैं। यहाॅ शकुन्तला और दुष्यन्त दोनों, शृङ्गार रस के आश्रय है और चॉदनी, प्राकृतिक वातावरण तथा एकान्त आदि दोनों की रति के उद्दीपक होने के कारण उद्दीपन विभाव है। *
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दशरूपकम् ४/२ सं. २५८
ननु च सामाजिकाश्रयेषु .
दशरूपकम् चतुर्थः प्रकाशः पृ. सं. ३८५
नाट्यदर्पण तृतीय विवेक
भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण
कश्चिदाश्रयमात्रदायिनी विदधति ?