________________
133
जाता है, अर्थात् सहृदय सामाजिक की प्रतीति के योग्य बनाया जाता है। इसलिए उन्हे विभाव कहा जाता है।
बहवोऽर्था विभाव्यन्ते वागङ्गाभिनयाश्रयाः। अनेन यस्मात्तेनायं विभाव इति संज्ञितः।। ( नाट्यशास्त्र ७/४)
इसप्रकार रसानुभूति के कारणों को विभाव कहा जाता है। शारदातनय ने विभाव के आठ ऐसे गुणो का उल्लेख किया है जिनमे से प्रत्येक का भिन्न-भिन्न रसो के साथ पृथक्- पृथक् सम्बन्ध निरूपित किया गया है। ललित गुण का सर्वप्रथम वर्णन है जिसे शृङ्गार का विभाव कहा जाता है।'
आचार्य विश्वनाथ ने विभाव की परिभाषा देते हुए कहा है'रत्याधुबोधका लोके विभावाः काव्यनाट्ययोः।'
अर्थात् लोक मे जो-जो पदार्थ लौकिक रत्यादि भावो के उद्बोधक हुआ करते हैं वे ही काव्य नाट्य में निविष्ट होने पर 'विभाव' कहे जाया करते हैं।
तात्पर्य यह है कि लोक-जीवन के रामादि पुरुषों के हृदय में रति हास-शोकादि भावों के उद्बोधक के रूप में जो सीतादिरूप कारण है, वे ही काव्य नाट्य में निविष्ट होने पर, विभाव कहे जाते हैं। काव्य नाट्य में समर्पित सीतादि को इसलिए विभाव कहा करते हैं क्यों कि 'इन्हीं के द्वारा सहृदय सामाजिकों की अनादिरत्यादि वासना रूप में अंकुरित होने से समर्थ बनायी जाया करती है।
दशरूपककार ने विभाव का यह अभिप्राय प्रकाशित किया है
भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण पृ. सं. १७१-१७२ भावप्रकाशन- एक समालोचनात्मक अध्ययन ११९ ( शारदातनय) साहित्यदर्पण ३/ पृ. सं. १३५-१३६