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संसारमय-वैराग्य-तत्त्व-शास्त्रविमर्शनः। शान्तोऽभिनयनं तस्य क्षमा ध्यानोपकारतः।। देव-मनुष्य नारक. . . . . शान्तोरसो भवति।'
इस प्रकार साहित्यदर्पणकार, काव्यानुशासनकार तथा नाट्यदर्पणकार ‘शम' को शान्त रस का स्थायीभाव मानते है। अतः सभी आचार्यों ने शान्त रस नामक नवम रस को स्वीकार किया है।
रस भावों का निरूपण रस के सभी प्रकारों का वर्णन करने के पश्चात् उनके भाव तत्त्वों पर यहाँ संक्षेप में विचार किया गया है -
विभाव - आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र (४/२) में विभाव की परिभाषा करते हुए लिखा है कि 'ज्ञान का विषयीभूत होकर जो भावों का ज्ञान कराये और उन्हें परिपुष्ट करे, वे विभाव कहे जाते है
'ज्ञायमानतया तत्र विभावो भावपोषकृत्।'
आचार्य भरत ने विभाव का अर्थ विज्ञान बताया है (विभावो विज्ञानार्थः ७/४) यह विज्ञान जिसे विभाव कहा गया है, स्थायी एवं व्यभिचारी भावों का हेतु हैं जिसके द्वारा स्थायी एवं व्यभिचारी भाव वाचिक आदि अभिनयों के माध्यम से विभावित होते है, अर्थात् जो विशेष रूप से जाने जाते है, उन्हे विभाव कहा जाता है। नाट्य में विषयवस्तु के अनेकानेक अर्थ आंगिक आदि अभिनयो पर अवलम्बित होते है उनको विभावना व्यापार द्वारा व्यक्त किया
नाट्यदर्पण तृतीय विवेका