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साहित्यदर्पण मे भी इसके दो भेदो का उल्लेख किया गया है - 'आलम्बनोद्दीपनाख्यौ तस्य भेदावुभौ स्मृतौ।'
इन दोनो भेदो में आलम्बन विभाव नायकादि को कहते हैं क्यों कि इन्हीं के सहारे, इन्ही के साथ, साधारणीकरण होने के कारण सामाजिकों के हृदय में रस का सञ्चार हुआ करता है। उद्दीपन विभाव के सन्दर्भ में आचार्य विश्वनाथ ने कहा है- उद्दीपनविभावास्ते रसमुद्दीपयन्ति ये। भिन्न-भिन्न रसो के भिन्न-भिन्न उद्दीपन विभाव हैं जो रस को उद्दीप्त किया करते हैं- उन्हे उद्दीपन विभाव कहते हैं। वैसे रस के उद्दीपन विभाव का अभिप्राय है उन-उन पदार्थों का जो सामाजिक-हृदय में उद्बुद्ध रत्यादि भाव का उद्दीपन किया करते
रसार्णवसुधाकर'कार ने निम्न पदार्थों को 'तटस्थ'उद्दीपन विभाव कहा
तटस्थाश्चन्द्रिका धारागृहचन्द्रोदयावपि।। कोकिलालापमाकन्दमन्दमारुतषट्पदाः। लतामण्डप- भूगेह दीर्घिकाजलदारवाः।। प्रसादगर्भसंगीतक्रीडादिसरिदादयः। एवमूह्य यथाकालमुपभोगोरोपयोगिनः।।'
साहित्यदर्पण ३/२९ पृ. सं. १३७ साहित्यदर्पण ३/१३१ पृ. सं. १९९ रसार्णवसुधाकर प्रथम विलास।